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________________ जैन मा कवि : जीवन और साहित्य २६३ करती है । जो इसको समझ लेना है, उसे अवश्य ही मोक्ष-सुम्ब उपलब्ध होता है, "साधो नागनि जागी। जाके जागन ममता मागी, साधो नागनि जागी । स्याद सुथान मोमिकावासी वमै तही अनुरागी । रूप न रेख वरन नहिं मीमा अमृन रस सौं पागी । जाके दसै लहै भमरापद मई अवस्था नांगी। फणाटोपमें ज्वाला जागी जोग स्मायण लागी। वाद विवाद दोष सब छांडे लोक विमाषा दागी। विमभूषण जो याकौं समझे होय मुकति मुख आगी।" कवि उस योगीमें चित्त लगाना चाहता है, जिसने सम्यक्त्वको डोरी कसके शीलका कछोटा पहना है। ज्ञानरूपी गूदडी गलेमे लपेट रखी है। योगरूपी मासनपर बैठा है। वह आदिगुरुता चेला है। उमने मोहरूपी कान फड़वाये है, उनमें शुक्लध्यानकी बनी मुद्रा पहनी है, उनकी शोभा कहते नहीं बनती। क्षायकरूपी सिंगी उसके पास है, जिसमें से करणानुयोगका नाद निकलता है । वह तत्त्व गुफामे बैठकर दीपक जलाता है और चेतनरूपी रत्नको प्राप्त कर लेता है। वह अष्टकर्मके कण्डोंकी धूनी रमाता है, ज्ञानकी अग्नि जलाता है। उपशमके छन्नेसे छानकर सम्यक्त्वरूपी जलसे मल-मलकर नहाता है । इस प्रकार वह योगरूपी सिंहासनपर बैठकर मोक्षपुरी जाता है। उसने ऐसे गुरुकी सेवा की है, जिससे उसे फिर कलियुगमें नहीं आना होगा, "ता जोगी चित लाऊँ। सम्यक् डोरो सील कलोटा घुलि घुलि गांठि लगाऊँ। ग्यान गूदरी गल में मेलौं जोग आसन ठहराऊँ ॥ आदि गुरु का चेला होकै मोह का कान फराऊँ। शुक्लध्यान मुद्रा दोउ सोहै ताकी सोभा कहत न पाऊँ ।। प्यायक सींगी गलमें मेल करणा नाद सुनाऊँ। तत्त्वगुफा में दीपक जोऊँ चेतन रतनहिं पाऊँ ।। अष्ट करम काण्ड की धूनी ग्याना भगनि जराऊँ। उपसम छन नाम सम छानिकै मलि मलि अंग लगाऊँ॥ इह विधि जोग सिंहासन बैठो मुकतिपुरी कौं जाऊँ। विसभूषण ऐसे गुरु से बहुरि न कलि में भाऊँ।" १. वहीं, पन्ना ४६ । २. वडी, पन्ना ४६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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