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________________ २६४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ढाईद्वीप-पाठ ___ वैसे तो इमको रचना संस्कृतमे की गयी है, किन्तु इसकी कई जयमालाएं हिन्दीमे है । उनमे काव्यत्व है और भक्ति भी। ७०. जिनरंगसूरि (वि० सं० १७३१ ) ___ आपका जन्म श्रीमाल जातिके 'सिन्धूड' वंशमें हुआ था। उनके पिताका नाम सांकरसिंह और मांका नाम 'सिन्दूरदे' था। उन्होंने अनुपम रूप पाया था । प्रतिभा भी असाधारण थी। जैसलमेरमे सं० १६७८ फाल्गुन कृष्णा ७ को उन्होंने श्री जिनराजसूरिसे दीक्षा ली थी। श्री सूरिजी खरतरगच्छ शाखाके पट्टधर मूरि थे। उनमें पूर्वाचार्य जिनचन्द और जिनसिंह सूरि थे, जिनको सम्राट अकबर और जहांगीरने अनेकों बार सम्मानित किया था। श्री जिनराजसूरि भी एक प्रसिद्ध आचार्य थे। उनकी विशेष ख्याति थी। उन्होंने खरतरगच्छके कल्याणको दृष्टिमे रखकर ही जिनरंगको उपाध्याय पदसे विभूषित किया । उनमे 'उपाध्याय'के योग्य योग्यता थी और व्यक्तित्व भी। १. कामताप्रसाद जैन, हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६६ । २. सिंधुड़ वंश दिनेसरु, सांकरशाह मल्हार न रे । 'पिन्दूरदै' उर हंसलउ, खरतरगच्छ सिणगार न ॥ मनमोहन महिमा मिलउ, श्रीरंगविजय उवझाय न रे । सेवत सुरतरु सम बड़इ, सबहि कइ मनि भाय न रे ।।६।। राजहंसकृत, जिनरंगसूरि गीत, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० २३१ । ३. संवत् सोल अठहतरइ, जैसलमेरु मंझारि तरे ।। फागुण बदि सत्तमि दिनइ, संयमल्यइ शुभ वार न रे ॥ मनमोहन० ॥२॥ वही, पृ० २३१ । ४. भानुचन्द्र गणि चरित्रकी भूमिकामें श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईकृत Jain Priests at the court of Akabar al Jain Teachers at the court of Jahangir, पृष्ठ क्रमशः १०,२०। ५. निज गच्छ उन्नति कारणइ, श्री जिनराज सुरिन्द न रे । पाठक पद दोघउ विधइ, प्रणमइ मुनि ना वृन्द न रे॥ मनमोहन० ॥४॥ राजहंसकृत जिनरंगसूरि गीत, ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, पृ० २३१ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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