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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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उनकी सरस और सुकोमल 'देसना' से समूचा संसार विमोहित हो जाता था । उनका हृदय भी छल-कपटसे रहित था । वे चौदह विद्याओमे पारंगत थे 1 दीक्षा समयका उनका नाम रंगविजय था । ज्ञानकुशलके "जिनरंगसूरि गीत" मे और सुमतिविजयके 'जिनराज मूरिगीत नं० ६' में उनको 'युवराज' पदसे सम्बो धिन किया गया है । यह उनकी महत्ताका ही सूचक है ।
रंगविजकी ख्यातिको सम्राट् शाहजहाँने भी सुना । आमन्त्रण देकर बुलाया और इतना अधिक प्रभावित हुआ कि सात मूबोमे उनके वचन प्रमाण करनेका आदेश फ़रमानके द्वारा दिया । शाहजहाँके पुत्र दाराने उनको 'युगप्रधान' के पदमे विभूषित किया था। सं० १७१० मे मालपुरेमे उनको 'युगप्रधान का पद दिया गया। इस अवसरपर नेमिदास सिन्धुड़ने एक शानदार महोत्सव मनाया, जिसमें अन्य आयोजनो के साथ-साथ महाजन संघको नालेरकी प्रभावना भी दी गयी । नाम भी 'रंगविजइ' से जिनरंगसूरि' हो गया। और वह अन्त तक इसी नाम से प्रतिष्ठित रहे। जिनरंगसूरिकी महिमाका बखान करनेवाले तीन गीतों का संकलन, 'ऐतिहासिक जैन- काव्य संग्रह मे हुआ है। तीनोंके निर्माता क्रमशः राजहंस, ज्ञानकुशल और कमलरत्न है ।
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१. सरस सुकोमल देसना, मोहइ सहूय संमार न रे ।
कूड काट हीयइ नहीं, सहु को नइ हितकार न रे ॥३॥ भवियण वांद भावस्यूं, जिम पायउ सुख सार न रे । रूप कला गुण आगलउ, निर्मल सुजस भंडार न रे ॥२॥ ज्ञानकुशलकृत जिनरंगमूरि गीत, ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह, पृ० २३२ ॥
२. जिनराजसूरि पाटोधक, दस च्यार विद्या जाण ।
वचन सुधार वरमतो, मान सहु को आण ॥१॥ कमलरत्नकृत युगप्रधान पदगीतम्, वही, पृष्ठ २३२ |
३. खरतरगच्छ युवराजियड, थाप्यउ श्री जिनराज न रे ।
पाठक रंगविजय जयन, सब गच्छपति सिरताज न रे ॥ १ ॥ ज्ञानकुशलका गीत, वही, पृष्ठ २३२ ॥
४. तीन प्रदिक्षण तूं देइ करीरे, श्री जी रे तुं लागे पाय रे ।
वलि युवराजा 'रंगविजइ' भणोरे, इनरउ करिजे वीर साय रे ॥२॥
आ० ॥
सुमतिविजयकृत जिनराजमूरि गीत, वही, पृष्ठ १७७ ।
५. कमलरत्नकृत युगप्रधान पदगीतम् पद्य २ -- ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह,
पृष्ठ २३२-३३ ।
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