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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
भगवान् जिनेन्द्रको जपनेका हो भाव प्रधान है । एक दूसरे पदमे अपनी निन्दा कर यह बताया गया है कि "मैंने स्वयं अपनेको कर्मोंमे बांधा है फिर मै उनको तोड़ कैसे सकता हूँ। मैने देव-शास्त्र गुरुको निन्दा कर मिथ्यात्वको स्वीकार किया है। रात-दिन विषय-चर्चा करके संयमको डुबा दिया है। तब तो हंस-हंसके कर्मोको बांध लिया, अब उनको भुगतते हुए रोना आता है। अब तो सम्यक्त्वसे रुचि करनेसे ही कर्म दूर हो सकते है ।" देखिए,
"कैसे देहुं कर्मनि पोरि! आप ही में कर्म बांधो, क्यों करि डारौँ तोरि ॥१॥ देव गुरु श्रुत करी निन्दा, गहीं मिथ्या डोरि । कर णिसु दिन विष चरचा, रछौ संजमु बोरि ॥२॥ हांसी करि करि कर्म बांधे, तवहि जानी थोरि । अबहि भुगतत रुदनु आवै, जैसे वन घन मोरि ॥३॥ चतुर रुचि सम्यक्त सौं करि, तस्व सौं रुचि जोरि । विश्वभूषन ! जोति जो जोवत, सकल कर्मनु फोरि ॥४॥"
विश्वभूषणके अनेक पद' दि० जैन मन्दिर बडौतके पद-संग्रह ५८मे संकलित है। वे उत्तम काव्यके निदर्शन है। विश्वभूपण भक्त थे और कवि भी, यह उनके पदोसे स्पष्ट ही है। उनकी दृष्टिमे इस 'बोरे' जीवको सदैव जिनेन्द्रका नाम लेना चाहिए। यदि यह 'परम तत्व प्राप्त करना चाहता है, तो तनकी ओरसे उदासीन हो जाये। यदि ऐसा नहीं करेगा तो भव-समुद्रमे गिर जायेगा और चहुँगतिमे घूमना होगा । विश्वभूषण भगवान्के 'पद-पंकज' मे इस भांति राँच गया है, जैसे कमलोमे भौंरा
"जिन नाम लैरे बौरा, तू जिन नाम लेरै बौरा । जैतू परम तत्व कौ चाहे तो तन को लगन जौरा ॥ नातरकै भवदधि में परिहै भयौ चहूंगति दौरा।।
विसभूषण पदपंकज राच्यो ज्यौं कमलन विचि मौरा ॥" अनेकान्तरूपी लहरके जागृत होते ही ममता भाग जाती है। कविने उसे नागिन कहा है। यह वह नागिन है, जिसके रूप नही, रेखा नही, वर्ण नहीं, शोभा नही। यह अमृत-रसमे पगी रहती है। इसके डसनेसे अमरपद मिलता है। इसके फणाटोपमे ऐसी ज्वाला उत्पन्न होती है, जो योग-रसायनका काम
१. कामताप्रसाद जैन, हिन्दी साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६६ । २. पदसंग्रह नं० ५८, दि. जैन मन्दिर, बड़ौत, पन्ना ४८ |