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________________ २६१ जैन मक्क कवि : जीवन और साहित्य चैत्यालय बने हुए है । सुर-गण भी इनकी प्रदक्षिणा दिया करते है । जिनदत्त-चरित्त ___ इसका निर्माण वि० सं० १७३८मे हुआ था। सबसे पहले इसका उल्लेख पण्डित नाथूरामजी प्रेमीने किया।' 'मिश्रवन्धु-विनोद'मे भी इसकी सूचना निबद्ध है। बावू कामनाप्रसादजीने श्री प्रेमीजीके आधारपर ही इसका उल्लेख किया है। जिनदत्तकी भक्तिमे इस चरितकी रचना हुई थी। जिनमत-खिचरी यह एक छोटा-सा मुक्तक काव्य है। इसमें १४ पद्य है । जीवात्माको परमात्माके दर्शनकी प्यास लग रही है। क्यो न लगे, परमात्मा उसका पति है। पति अभीतक नहीं आया। अवश्य ही वह मोहमहामद पीकर किसी भ्रम-जालमे फंस गया है, "लगु रही मो हिय हो दरसन की, पिया दरसन की आस दरसनु कहि न दीजिये ॥१॥ काहं हो भूले भ्रम पीया, भूले भ्रम जाल, मोह महामद पीजिये ॥२॥" अन्तमे कविने लिखा है कि इसके पढ़नेसे मंगल होता है। मंगल इसीलिए होता है कि इसमे भगवान् जिनेन्द्रको शरणमे जानेका भाव ही प्रधान है । वह पद्य देखिए, "सुनियो हो मवि मनु दे, अहो मवि मनु दे याहि मंगल होहि शरणा तनै । कीनी हों परमारथ, अहो परमारथ हेत, विश्वभूषन मुनिराजन ॥१४॥" पद इनके द्वारा रचा हुआ एक पद जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं. ५१मे संकलित है। यह गुटका सं० १८२३ कार्तिक बदी ७का लिखा हुआ है। इस पदकी आरम्भिक पंक्ति 'जिण जपि जिण जपि जीयडा' है । उसमें १.हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृष्ठ ७० । २. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृष्ठ ५०६ । ३.हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १६६ । ४. वही, पृष्ठ १६६।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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