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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
आठई आरति सिव सुष पावै ।
नेमजी के गुण विश्वभूषण गावै ॥" नेमिजीका मंगल
इसको हस्तलिखित प्रति दि० जैन मन्दिर पाटौडी, जयपुरके गुटका नं० १२ में, पन्ना १६-१७ पर निबद्ध है। कविने इसकी रचना सिकन्दराबादके 'पाव जिन देहुरे'मे की थी। इसका रचनाकाल वि० सं० १६९८ श्रावण शुक्ला ८ दिया हुआ है । अवश्य ही उस समय विश्वभूषण केवल मुनि होगे, भट्टारक नही । उस समयके सिकन्दराबादमें धार्मिक श्रावक रहते थे। उनको दानमें प्रवृत्ति थी। प्रारम्भिक पंक्तियां है,
"प्रथम जपो परमेष्टि तो हीयौ धरौ
सरस्वती करहुं प्रणाम कवित्त जिन उच्चरौ । सोरठि देस प्रसिद्ध द्वारिका अति बनी
___ रची इन्द्र नै भाइ सुरनि मनि बहुकनी ॥" पार्श्वनाथका चरित्त
इसको हस्तलिखित प्रति भी उपर्युक्त गुटकेमे ही संकलित है। इसका रचनाकाल नहीं दिया है। कविने अन्तिम पद्यमे स्वीकार किया है कि इसकी रचना आचार्य गुणभद्रके उत्तरपुराणको आधार मानकर की गयी है। रचनामें प्रवाह है। प्रारम्भिक पद्य देखिए,
"मनउ सारदा माई, मजौ गनधर चितु लाई । पारस कथा सम्बन्ध, कहौ भाषा सुखदाई ॥ जम्बू दखिन मरथ मैं, नगर पोदना मांझ । राजा श्री अरविन्दजू, भुगतै सुख अवाझ ।। विप्र तहाँ एक वसै, पुत्र द्वौ राज सुचारा । कमठु बड़ौ विपरीत, विसन से जु अपारा ॥ लघु भैया मरुभूति सौ वसुधरि दई ता नाम ।
रति क्रीड़ा सेज्या रच्यो हो कमठ भाव के धाम ॥" पंचमेरु-पूजा
इस पुजाकी प्रति बधीचन्दजीके मन्दिर जयपुरमें स्थित गुटका नं० १२५में निबद्ध है। तीर्थकरोंके अभिषेक-जलसे पंचमेरु तीर्थक्षेत्र कहे जाते हैं। सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दिर और विद्युन्माली, पंचमेरुमोके नाम हैं। इनपर अस्सी जिन