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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
देवी सरस्वतीसे वरदान मांगते हुए कविने कहा, "हे माता सरस्वती ! मै आपसे एक वचन मांगता हूँ कि जो कविराज मुझसे पहले हुए है, मेरा मन उनके चरणोमें लगा रहे।
उपाध्यायजीने नवकार मन्त्र और चौदह पूर्वोके प्रति भक्तिका प्रदर्शन करते हुए लिखा है, मैं णमोकार मन्त्र और चौदह पूर्वोका ध्यान करता हूँ। उनकी महिमा अपार है, एक जिह्वासे वर्णन करते हुए पार नही पाया जा सकता।
श्रुतभक्तिसे अनुप्राणित होकर उन्होंने लिखा है, जो कोई इस काव्यको हृदयमे धारण करता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं, और अत्यधिक सुख प्राप्त होता है। वह दुःखसागरसे पार हो जाता है। उसे अविचल शिवसुख मिलता है।
श्री संवेगसुन्दरने अपने गुरु जयसुन्दरकी भी आराधना की है। उनके गुरु निर्मल यशके धारण करनेवाले थे।
१५. ईश्वरसूरि (वि० सं० १५६१ ) ____ ईश्वरसूरि सण्डेरगच्छके श्रीशान्तिसूरिके शिष्य थे। उनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार है : यशोभद्रसूरि, शालिसूरि, सुमतिसूरि और शान्तिसूरि । शान्तिसूरिका समय १५५० वि० सं० के आस-पास माना जाता है। इसी समय उन्होंने 'सागरदत्तरास' की रचना की थी। यही ईश्वरसूरिका भी समय है। उन्होंने वि. सं० १५६१ मे ललितांगचरित्रको रचना की। ईश्वरसूरिने वि० सं० १५९७ में, नाडलाईके मन्दिरमे, आदिनाथकी प्राचीन प्रतिमाका उद्धार कर, उसे पुनः प्रति१. माता सरसति देवि कन्हई एक सुवचन मागुं,
जे कविराज आगई हूआए तेह चरणे लागुं ॥२॥ २. ध्याऊँ श्री नवकार मंत्र च उद पुरव सार,
वर्णवतां एक जीभडीए न लहीजई पार ॥३॥ ३. “एक मनां जे हिय धरीसई, भवना सईनां पातिग धोसई,
होसई सुख तेह अति धणूए । ए हितसिष्या नितु हईइ घरस्यई, दुखसागर ते निश्चय तरस्यई
शिव सुख अविचल पांमस्यइ ॥२३६-३७।। ४. यश कीरति जेह निरमल ए जयसुंदर जेह
संवेगनिधि गुरु गणहरुए आराधु तेह ॥४॥