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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "वामानंदन जिनवर पास, तुतो निमोवन लील विलास। विनति छोडि भवपाश, हुँ छु देव तुमारो दास ॥१॥ ऋषभदेवकी वन्दना करते हुए, 'चतुर्विशतिजिनस्तवन के प्रारम्ममे ही लिखा है, "कनक तिलक माले हार हीई निहाले, ऋषभपय पखाले पापना पंक टाले । अर जिनवर माले फूटरे फूल माले, नरभव अजुभाले राग निई रोस टाले ॥१॥" 'वैराग्य विनती' में भी भगवान् ऋषभदेवकी ही विनती की गयी है। भगवान् भवसे तारनेवाले और सुखके कारण है, "जय पढम जिणेसर अति अलवेसर, भादीश्वर त्रिभुवनधणीय, शत्रुजय सुखकारण सुणि भवतारण वीनतडी सेवक मणीय ॥१॥" १४. संवेगसुन्दर उपाध्याय ( वि० सं० १५५८ ) संवेगसुन्दर उपाध्याय, बड़तपगच्छके जयसुन्दरसूरिके शिष्य थे। उनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : जयशेखरसूरि, जिनसुन्दरसूरि, जिनरत्नसूरि और जयसुन्दरसूरि'। उनका समय वि० सं० १५४८ के आस-पास माना जाता है। उन्होंने 'सारसिखामनरास'की रचना वि० सं० १५४८ मे की थी। सारसिखामनरास ___इस रासमें २५० पद्य है। उनमे जैनधर्म-सम्बन्धी अनेक शिक्षाओंका उल्लेख हुआ है। इसकी भाषापर गुजरातीका प्रभाव है। पार्श्वप्रभुकी वन्दना करते हुए कविने लिखा है कि मै तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथके पैरोमें, एकचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। मुझे यह एकचित्तता गुरुके प्रसादसे मिली है। १. जैनगुर्जरकविओ, प्रथम भाग, पृष्ठ ६७, पद्य २३३-२३४ । २. पनरसई अडतालई संवत्सरि, मगसिरि सुदि दसमी गुरु मानुष्यपुरि, नितु नितु मंगल जयकरुए। वही, पृष्ठ ६७, पद्य २३५ । जयपुरके बड़े मन्दिरमें, सारसिखामनरासकी जो प्रति है, उसपर भी रचनाकाल १५४८ वि० सं० ही अंकित है। ३. वीसमा श्री पासनाह प्रभु केरा पाय , हुं प्रणमुं एकचित्त थई लही सुगुरु पसाय ॥१॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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