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________________ तुलनात्मक विवेचन ४९३ "रे मन मज भज दीनदनाल। जाके नाम लेत इक छिन मैं, करें कोट अघ जाल ॥" भूवरदासका कथन है कि सीमन्धरस्वामीके नामका उच्चारण करनेसे पाप उसी भाँति नष्ट हो जाते है, जैसे सूर्योदयसे अंधेरा, “सीमंधर स्वामी मैं चरनन का चेरा। नाम लिये अब ना रहें ज्यौं ऊगे मान अंधेरा ॥" भगवान्के नाममे श्रद्धा करना प्रत्येक व्यक्तिका कर्तव्य है । वेद, पुराण और पुरारि आदि सभीने भगवान्के नामको महिमा स्वीकार की है। कुछ ऐसे भी हैं, जो इस महिमाको स्वीकार नही करते, किन्तु भगवान्के भक्त उनके प्रति भी उदार रहें, यह ही उचित है । तुलसीने उनको गधा कहा है, "वेद हू, पुरान हू, पुरारि हू पुकारि कयो, नाम प्रेम चारि फल हू को फरु है । ऐसे राम-नाम सों न प्रीति न प्रतीति मन, मेरे जान जानिबो सोई नर खरु है।" द्यानतरायने भी एक ऐसे ही पदका निर्माण किया है, जिसमे उन्होंने भगवान्का नाम न लेनेवालेको धिक्कारा तो है, किन्तु 'गधा'-जैसे शब्दका प्रयोग नहीं किया। उनका कथन इस प्रकार है, "इन्द्र फनिन्द चक्रधर गावै, जाको नाम रसाल । जाको नाम ज्ञान परकासै, नाशै मिथ्या - जाल ॥ पशु ते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करै अवतार । नाम बिना धिक मानव को भव, जल बल द्वै हैं छार ॥" भगवान्की उदारता उसके नाममे भी सन्निहित है। भगवान्का नाम लेनेसे केवल पुण्यात्मा ही नहीं, अपितु पापी भी तर जाता है । सूरदासने लिखा है, "को को न तस्यौ हरि नाम लिये। सुवा पढ़ावत गनिका तारी, ब्याध तरयो सर-घात किये। अंतरदाह जु मिव्यौ व्यास को इक चित है भागवत किये ॥" १. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, ६६वॉ पद, पृ० २८॥ २. भूधरविलास, कलकत्ता, दूसरा पद, पृ० १-२ । ३.विनयपत्रिका, उत्तराद्ध, २५५वॉ पद, पृ०५०५। ४. द्यानतपदसंग्रह, ६६वाँ पद, पृ० २८ । ५. सूरसागर, प्रथम स्कन्ध, ८६वाँ पद, पृ० २६ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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