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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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भी पता चल सकता है ।"" इसकी बढी हुई संख्याको आचार्य क्षितिमोहन सेनने भी सन्देहकी दृष्टिसे देखा है । मेरी दृष्टिमे श्री महाराज वुद्धिसागरजीका 'आनन्दघन पद- संग्रह' उपयुक्त रचना है । इसका रचना सं० १७०५ स्वीकार किया गया है । 'मिश्रबन्धु विनोद' में भी यह हो रचनाकाल दिया गया है। यह अठारहवी शताब्दी के प्रथम पादकी कृति है ।
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भक्ति विषय आनन्दघनजीके जमे हुए विचार थे। लौ, उसका विशिष्ट गुण माना है, मन कही भी जाये, किन्तु उसकी लो भगवान्के चरणोंमे हो लगी रहे, तभी वह भक्ति है अन्यथा नही । कविने उमीको विविध और सुन्दर दृष्टान्तोसे पुष्ट किया है,
"ऐसे जिन चरण चित पद लाऊं रे मना, ऐसे अरिहंत के गुण गाऊं रे मना ।
उदर भरण के कारणे रे गउवां बन में जाय,
चारौ चरै चहुँ दिसि फिरै, बाकी सुरत बछरुभा माँय ॥" अर्थात् जिस प्रकार उदर भरणके लिए गौएँ वनमे जाती है, घास चरती हैं और चारों ओर फिरती है, परन्तु उनका मन अपने बछड़ोंमे लगा रहता है । ठोक इसी प्रकार संसारके सब काम करते हुए भी हमारा मन भगवान्के चरणोंमें लगा रहे और अरिहंतके गुण गाता रहे, तभी वह भक्त है ।
“सात पाँच सहेलियाँ रे हिल मिल पाणीड़े जायँ । ताली दिये खल खल हँसे, वाकी सुरत गगरुभा मायँ ॥"
सहेलियाँ हिल-मिलकर पानी भरनेके लिए तालाब या कुएँपर जाती है । रास्ते ताली बजाती है और हँसती-खेलती भी है, किन्तु उनका ध्यान सिरके घड़ेपर ही लगा रहता है। ठीक इसी भाँति संसारके अन्य काम करते हुए भी हमारा मन भगवान्मे लगा रहना चाहिए ।
"नटवा नाच चौक में रे, लोक करै लख शोर ।
बाँस ग्रही बरते चढ़े, बाकौ चित न चलै कहुँ ठोर ॥'
नट बांस लेकर रस्सी पर चढ़ता है और उसपर अपना उत्तम नृत्य दिखाता
है, जिसकी कुशलता देखकर लोग शोर-गुल मचाते हैं।
इधर-उधर देखते हुए भी
१. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पादटिप्पणी, पृ० ६१ । २. आचार्य क्षितिमोहन सेनका उपर्युक्त लेख, पृ० ४
३. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, संख्या ३४४ १, पृ० ४२८-२६ ।
४. आनन्दधन पद संग्रह, श्रीमद् बुद्धिसागरकृत गुजराती भावार्थसहित, अध्यात्मज्ञान
प्रसारक मण्डल, बम्बई, वि० सं० १९६६, पद ६५, पृ० ४१३- ४१५ /
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