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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि हैं, इससे चौबीमीका समय सं० १६७८ के अनन्तर हो ठहरता है। किन्तु इससे कोई निश्चित तिथि विदित नहीं हो सकी । श्री के० एम० झावेरोने अपने 'माइल स्टोन्म इन गुजराती लिटरेचर में स्पष्ट रूपमे इसका रचना संवत् १६८७ दिया है। इसपर श्री यनोविजयजी उपाध्याय, ज्ञानविमलसूरि और ज्ञानसारने पृथक्पृथक् 'बालावबोध टबाकी रचना की थी। यशोविजयजीने जिस मूल प्रतिको लिया, उसमे केवल २२ स्तवन थे, किन्तु ज्ञानविमलसूरि और ज्ञानसारको प्रतियोंमे २४ म्तवन थे, और उन्होंने उन सबपर टबाकी रचना की। यह चौबीसी पिछले टबामहित 'चौबीम स्तवन आनन्दघन चौबीसी' नामसे श्रावक भीमसिंह माणिकके यहाँसे प्रकाशित हो चुकी है। .
आनन्दघन बहत्तरी ___यह हिन्दीको प्रसिद्ध रचना है । यद्यपि गुजराती प्रकाशनोंने उसको भाषाको गुजरातीमे ढालनेका प्रयास किया है, किन्तु उसका मूल रूप छिप नहीं सका, और आज वह बड़े-बड़े विद्वानोंकी दृष्टिमे भी हिन्दीकी ही कृति है। इसके अनेकों प्रकाशन हो चुके है । सवत् १९४४ में यह बम्बईके श्रावक श्री भीमसिंह माणिकके यहाँसे प्रकाशित हुई । इसमें १०६ पद हैं, और कोई भूमिका अथवा टीका-टिप्पणी नहीं है । दूसरा प्रकाशन श्रीयुत् मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया सोलोसिटरके मम्पादनमे 'मानन्दघन पद्यरत्नावली, प्रथम भाग' के नामसे, जैन धर्म प्रसारक ममा भावनगर' से हुआ। इसमे बहत्तरीके केवल ५० पद्योंपर विवेचन किया है । श्री बुद्धिसागरजीके बृहद् विवेचनके साथ 'आनन्दघनपद-संग्रह' अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल बम्बईसे प्रकाशित हुआ है। यह एक सुन्दर ग्रन्थ है । और आनन्दघनजीके पदोका भावार्थ विस्तारमे समझाया गया है। बहुत दिन पूर्व रायचन्द काव्यमालासे भो एक 'आनन्दधन बहत्तरी' छपी थी। इसमें १०७ पद्य है। रचनाके शीर्षकसे स्पष्ट है कि इस कृतिमे ७२ या कुछ अधिक पद होने चाहिए, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे १०० से भी अधिक हो जायें। फिर तो उसका नाम शतक पड़ जायेगा। 'आनन्दधन बहत्तरी' के १०७ पदोंपर आपत्ति उठाते हुए पं० नाथूरामजी प्रेमीने लिखा है, "जान पड़ता है, इसमें बहुत-से पद बोरोंके मिला दिये गये है। थोड़ा ही परिश्रम करनेसे हमें मालूम हुआ है कि इसका ४२ वा पद 'अब हम अमर भये न मरेंगे' और अन्तका पद 'तुम ज्ञान विमी फूली बसंत' ये दोनों द्यानतरायजोके हैं। इसी तरह जांच करनेसे औरोंका १. का० ना० ५० पत्रिका, वर्ष ५३, अंक १ में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्रका लेख, 'नन्दगाँवके भानन्दवन', पृ० ४८ |