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जैन भक्ति-काव्यका माव-पक्ष
अनन्य प्रेम
प्रेममे अनन्यताका होना अत्यावश्यक है। प्रेमोको प्रियके अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है। मां बापने राजुलसे दूसरे विवाहका प्रस्ताव किया, क्योकि राजुलको नेमीश्वरके साथ भाँवरे नहीं पड़ने पायी थी। किन्तु प्रेम भांवरोकी अपेक्षा नहीं करता। राजुलको तो सिवा नेमीश्वरके अन्यका नाम भी रुचिकारी नही था। इसी कारण उसने मां-बापको फटकारते हुए कहा, "हे तात! तुम्हारी जीभ खूब चली है, जो अपनी लडकीके लिए भी गालियां निकालते हो। तुम्हे हर बात सँभालकर कहना चाहिए। सब स्त्रियोंको एक-सी न समझो। मेरे लिए तो इस संसारमें केवल नेमि-प्रभु ही एक मात्र पति है।"
"काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानत हो यह बात भली है। गालियाँ काढत हो हमको सनो तात मली तम जीभ चली है। मैं सबको तुम तुल्य गिनौ तुम जानत ना यह बात रली है।
या भव में पति नेम प्रभू वह लाल विनोदी को नाथ बली है ॥" महात्मा आनन्दघन अनन्य प्रेमको जिस भांति आध्यात्मिक पक्षमें घटा सके, वैसा हिन्दीका अन्य कोई कवि नही कर सका। कबीरमे दाम्पत्यभाव है और आध्यात्मिकता भी, किन्तु वैसा आकर्षण नही, जैसा कि आनन्दघनमे है। जायसीके प्रबन्ध काव्यमे अलौकिककी ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लोकिक कथानकके कारण उसमे वह एकतानता नहीं निभ सकी है, जैसी कि आनन्दघनके मुक्तक पदोमे पायी जाती है। सुजानवाले घनानन्दके बहुत-से पद 'भगवद्भक्ति' मे वैसे नही खप सके, जैसे कि सुजानके पक्षमें घटे हैं। महात्मा आनन्दघन जैनोंके एक पहुँचे हुए साधु थे। उनके पदोंमे हृदयकी तल्लीनता है। उन्होने एक स्थानपर लिखा है, "सुहागिनके हृदयमें निर्गुण ब्रह्मको अनुभूतिसे ऐसा प्रेम जगा है कि अनादिकालसे चली आनेवाली अज्ञानको नीद समाप्त हो गयी। हृदयके भीतर भक्तिके दीपकने एक ऐसी सहज ज्योतिको प्रकाशित किया है, जिससे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गयी। प्रेम एक ऐसा अचूक तीर है कि जिसके लगता है वह ढेर हो जाता है। वह एक ऐसा वीणाका नाद है, जिसको सुनकर आत्मारूपी मृग तिनके तक चरना भूल जाता है। प्रभु तो प्रेमसे मिलता है, उसकी कहानी कही नहीं जा सकती।"
"सुहागण जागी अनुभव प्रीत, सुहा०।
निन्द अज्ञान अनादि की मिट गई निज रीति ॥ सुहा० ॥१॥ १. विनोदीलाल, नेमिब्याह, जैन सिद्धान्तभवन धाराकी हस्तलिखित प्रति ।