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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
घट मन्दिर दीपक कियो, सहज सुज्योति सरूप । आप पराइ आप हो, ठानत वस्तु अनूप ।।सुहा० ॥२॥ कहा दिखावू और कू, कहा समझाउं भोर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ठोर ॥सुहा० ॥३॥ नाद विलुतो प्राण कू, गिने न तृण मृगलोय ।
आनन्दघन प्रभु प्रेम का, अकथ कहानी वोय ॥सुहा० ॥४॥'' भक्तके पास भगवान् स्वयं आते है। भक्त नही जाता । जब भगवान् आते है, तो भक्तके आनन्दका पारावार नहीं रहता। आनन्दघनकी सुहागन नारीके नाथ भी स्वयं आये है, और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है। लम्बी प्रतीक्षाके बाद आये नाथको प्रसन्नतामे, पत्नीने भी विविध भांतिके शृंगार किये हैं। उसने प्रेम, प्रतीति, राग और रुचिके रंगमे रंगी साड़ी धारण की है, भक्तिकी मेहंदी रांची है और भावका सुखकारी अंजन लगाया है। सहज स्वभावकी चूड़ियां पहनी है और थिरताका भारी कंगन धारण किया है। ध्यानरूपी उरबसी गहना वक्षस्थलपर पड़ा है, और पियके गुणकी मालाको गलेमे पहना है। सुरतके सिन्दूरसे मॉगको सजाया है और निरतिको वेणीको आकर्षक ढंगसे गूंथा है। उसके घटमे त्रिभुवनको सबसे अधिक प्रकाश्यमान ज्योतिका जन्म हुआ है। वहाँसे अनहदका नाद भी उठने लगा है। अब तो उसे लगातार एकतानसे पियरसका आनन्द उपलब्ध हो रहा है।
"आज सुहागन नारी ॥अवधू आज०॥ मेरे नाथ श्राप सुध लोनी, कीनी निज अंगचारी ॥अबधू० ॥१॥ प्रेम प्रतीत राग रुचि रंगत, पहिरे जिनी सारी । महिंदी भक्ति रंगकी राची, भाव अंजन सुखकारी ||अबधू०॥२॥ सहज सुमाव चूरीयाँ पेनी, थिरता कंगन मारी। ध्यान उरवसी उर में राखी, पिय गुन माल अधारी ॥अवधू० ॥३॥ सुरत सिंदूर मांग रंग राती, निरते बेनी समारी। उपजी ज्योत उद्योत घट त्रिभुवन, भारसी केवल कारी ॥अबधू० ॥४॥ उपजी धुनि अजग की अनहद, जीत नगारे वारी। झाडी सदा मानन्दघन बरावत, बिन मोरे इक तारी ।अबधू० ॥५॥"
१. महात्मा आनन्दघन, आनन्दधनपदसंग्रह, अध्यात्मशान प्रसारक मण्डल, बम्बई,
चौथा पद, पृ०७। २. वही, २०वाँ पद।