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जैन भक्ति-काव्यका माव-पक्ष
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ठीक इसी भांति बनारसोदासकी 'नारी' के पास भी निरंजनदेव स्वयं प्रकट हुए हैं। वह इधर-उधर भटकी नहीं। उसने अपने हृदयमे ध्यान लगाया और निरंजनदेव आ गये। अब वह अपने खंजन-जैसे नेत्रोंसे उसे पुलकायमान होकर देख रही है, और प्रसन्नतासे भरे गीत गा रही है। उसके पाप और भय दूर भाग गये है। परमात्मा-जैसे साजनके रहते हुए, पाप और भय कैसे रह सकते है । उसका साजन साधारण नहीं है, वह कामदेव-जैसा सुन्दर और सुधारस-सा मधुर है । वह कर्मोका क्षय कर देनेसे तुरन्त मिल जाता है।'
विनयभाव
रतिके तीन प्रधान रूपोंमे 'भगवद्विषयक रति' ही मुख्य है, और निरूपणकी दृष्टिसे उसमे विनयके सभी पद आ जाते हैं । 'विनयभाव'को ही साहित्य-परम्परामे 'सेव्य-सेवकभाव' और 'दास्यभाव' भी कहा जाता है। इसमे अपनी लघुता, दीनता, आराध्यकी महत्ता, याचना और शरणागतकी रक्षाका भाव प्रमुख होता है। सेवाको अनुवृत्ति भी कहते है, अनुवृत्ति वह है, जो निष्कामतासे अनुप्राणित हो । भक्तिसे सम्बन्धित दास्यभाव आराध्यकी महत्ताकी स्वीकृतिपर आधारित है, निजी स्वार्थपर नहीं। सेवा
सोलहवों शताब्दीके सामर्थ्यवान् कवि श्री मेरुनन्दन उपाध्यायने लिखा है, "अजितनाथ और शान्तिनाथ मंगलदायक, श्रीसम्पन्न और पूनोके चन्द्रकी भांति सुख प्रदान करनेवाले है । दोनो ही संसारके गुरु है और नेत्रोंको आनन्दित करते है। उन जिनवरोको प्रणाम करके और उनके गुणोंको गाकर जो उनकी सेवा करता है, उसके पुण्यके भण्डार भर जाते है और उसका मानव-भव सफल हो
१. म्हारे प्रगटे देव निरंजन।
अटको कहा कहा सर भटकत कहा कहूँ जन रंजन ॥ म्हारे० ॥१॥ खंजन द्ग दृग नयनन गाऊँ चाऊँ चितवत रंजन । सजन घट अंतर परमात्मा सकल दुरित भय रंजन ॥ म्हारे ॥२॥ वोही कामदेव होय काम घट वोही मंजन ।
और उपाय न मिले बनारसी सकल करमषय खंजन ॥म्हारे० ॥३॥ बनारसीदास, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, 'दो नये पद', पृ०२४०क ।