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________________ ३९४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि जब 'पिया' घर नही तो 'पत्नी' किससे होली खेले । वह होली न खेल सकेगी। उसके लिए इस वर्षकी होली कोरी है। ऐसे समय वह उस होलीको याद करती है, जब वह उपशमकी केशर घोलकर प्रियतमके साथ खेली थी। सुमति भगवान्से हाथ जोड़कर कहती है कि हे प्रभु ! मैं पुनः वह समय कब पाऊँगी, "पिया बिन कासौं खेलौं होरी। भातमराम पिया घर नाहीं मोकू होरी कोरी ।। येक बार प्रीतम हम पेले उपसम केसरि घोरी । धानति वह समया कब पाऊँ सुमति कहै कर जोरो ॥" महात्मा आनन्दघनने 'आध्यात्मिक क्षेत्र में विरहकी विविध दशाओंके अनुपम चित्र खींचे हैं। प्रिया विरहिणी है। उसका पति बाहर चला गया है। वह पति बिना सुध-बुध खो बैठी है। महलके झरोखेमे उसकी आँखें झूल रही है। पति नहीं आया। अब वह कैसे जोवे । विरहरूपी भुवंगम उसकी प्राणरूपी वायुको पी रहा है । शीतल पंखा, कुमकुमा और चन्दनसे कुछ नहीं होता। शीतल पवनसे विरहानल हटता नहीं, अपितु तन-तापको और भी बढ़ाता है। ऐसी ही दशामें एक दिन होली जल उठी। सभी चांचरके खेलमें मस्त हो गयीं। विरहिणी कैसे खेले। उसका मन जल रहा है। उसका समूचा तन खाख (धूल ) होकर उड़ा जाता है। होली एक ही दिन जलती है, उसका मन तो सब दिन जलता है। होलीके जलनेमें आनन्द है और इस जलनमें तीन दुःख, "पिया बिनु शुद्ध बुद्ध भूली हो। आंख लगाइ दुख महल के झरुखे झुली हो॥ प्रीतम प्राणपति विना प्रिया, कैसें जीवे हो। प्रान पवन विरहादशा, भुयंगम पीवे हो ॥ शीतल पंखा कुमकुमा, चंदन कहा लावे हो । अनकन विरहानल पेरै, तनताप बढ़ावे हो । फागुन चाचर इकनिशा, होरी सिरगानी हो। मेरे मन स दिन जरे, तन खाख उड़ानी हो ॥" १. वही। २. आनन्दधनपदसंग्रह, श्रीमद् बुद्धिसागरजीकृत गुजराती भावार्थसहित, अध्यात्म शानप्रसारक मण्डल, बम्बई, वि० सं० १९६४, पद ४१, पृ० ११६-१२३ । ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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