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हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि ४२. सहजकीति (वि० सं० १६६१-१६९७ ) ___ यह सांगानेर जयपुरके रहनेवाले थे। इनकी कृतियोसे इनके पारिवारिक जीवनका कुछ भी पता नही चलता है। यह खरतरगच्छकी क्षेम शाखाके साधु थे। इन्होंने मुनि जिनचन्द्रका श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है। इनके गुरुका नाम आचार्य हेमनन्दन था। इनकी विशेष ख्याति थी। इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार थी : जिनसागर, रत्नसार, रत्नहर्प, हेमनन्दन, सहजकीत्ति। इनके 'शत्रुजय महात्म्य राससे आचार्य जिनसिंहमूरि और मम्राट अकबरको भेटका वृत्त विदित होता है।' इनकी रचनाओका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकारसे है : प्रीति-छत्तीसी __इसको रचना सांगानेरमै वि० सं० १६८८ मे विजयदशमीके दिन हुई थी। उसकी प्रति जयपुरके ठोलियोके मन्दिरके गुटका नं० ९७ में संग्रहीत है। इसकी एक प्रति पं० तिलकविजयके शिष्य गोदाके द्वारा श्राविका सभलदेके पढ़नेके लिए लिखी हुई बडोदराके शास्त्रभण्डारमे मौजूद है। उसका आदि और अन्त देखिए, आदि
"प्रीति न किणिही जीती जायई, इकइविणु अरिहंतजी, मावई कोडि उपाय करउ कोइ, लागई मंत न तंतजी।"
अन्त
"प्रोति छत्रीसी ए वयरागि, भविक मणि हितकारजी, .
वाचक सहजकीरति कहइ मावइ, श्री संघ जयजयकारजी।" 'पार्श्व-भजन', 'चउवीस','जिनगणधरवर्णन', 'पार्श्वजिनस्थानवर्णन' और 'बीस तीर्थकरस्तुति' ये चारों भक्तिसम्बन्धी काव्य जयपुरके बधीचन्दजीके जैन-मन्दिरमे गुटका नं० ११६ में निबद्ध हैं। उनके रचनाकालके विषयमे कुछ भी विदित नहीं है। हो सकता है कि सतरहवीं शताब्दीका अन्तिम पाद ही इनका रचनासमय हो, क्योंकि इनकी 'प्रीति छत्तीसो' आदिकी रचना उसी समय हुई है। शत्रुजंय महात्म्य-रास
इसकी रचना सणकोट में सं० १६८४ में हुई थी। इसकी एक प्रति वि० १. श्री जिनसिंह सिंह जिम दिप्पउ, तसु पाटई चित लावई,
अकबर साहि सभासन रंजी, जलनिधि मीन छुड़ावइ रे ।
शत्रुजय महात्म्य रास, अन्त माग, पद्य ७१वा, जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृ० ५२५ । २. बैनगुर्जरकविनो, भाग १, पृ० ५२६ ।