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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २४९ जातिके धर्मदासका छोटा पुत्र था।' लुहाडी बनियोंकी एक उपजाति है, जो राजस्थानकी तरफ़ अब भी पायी जाती है। यह रचना मौलिक कृति नहीं है। कविने उसको मूल संस्कृतमे पढा था। उसका यह भाषानुवाद है। इसमें जैन-भक्तोंकी कहानियां हैं, जो ११७८ दोहेचौपाइयोंमे निबद्ध को गयो है। अनुवाद होते हुए भी भाषा और शैलीकी दृष्टिसे नवीन कृति है । आदि और अन्त देखिए, "परम पुरुष आनंदमय, चेतन रूप सुजान । नम् शुद्ध परमात्मा, जग परकासक मान । परम जाति आनंदमय, सुमनि होइ भानंद । नामिराज सुत आदि जिन, बंदी पूरण बंद ॥" अन्त "बंदी सिव अवगाहना, भर वंदो सिव पंथ । असह देव वंदौ विमल, वंदो गुरु निरगंथ ॥ जिनवाणी पूजौ सही, ताते सब सुख होय । कविता दुखन नहीं लगौ, सुख से पूरण होय ।। चंद सूर पानी भवनि, पवन अरु आकास । मेरादिक जब लग अटल, तब लग जैन प्रकास ॥" धर्म सरोवर इसकी रचना वि० सं० १७२४ आषाढ़ सुदी पूर्णिमाको हुई थी। अर्थात् 'सम्यक्त्व कौमुदी' से आठ माह पूर्व । इसकी एक प्रति 'जैन मन्दिर सेटका कुँचा १. धर्मदास को पूत लघु, जाति लुहाड्यौ जोय । नाम कल्याण मजानिये, कवि को मामी सोय ॥ नया मन्दिर दिल्लीकी हस्तलिखित प्रति, प्रशस्ति । २. ग्यारासैं अठहत्तरि इहै छंद चौपई जान । कह्यौ कौमुदी ग्रन्थ को जोध सुमनि अनुमान ॥ वही। ३. वही, पृ० २६१-२६२ । ४. संवत सत्रह से अधिक, है चौईम सुजानि । सुदि पून्यो आपाढ कौ, कियो ग्रंथ सुषदानि ।। जोधराज गोधीका, धर्मसरोवर, पद्य ३८५, सेठ कुंचा दिल्लीकी प्रति, नं० ३६३ पर निबद्।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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