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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
चौपाई
दोहा
" कवि बालक यह कीन्हो ख्याल | हसौ माती बुधिवंत विसाल ॥ राम जानकी गुन विस्तार । कहै कौन कवि वचन विचार ॥ ३ ॥
देव धर्म गुरु कू सिरनाइ । कहै चंद उत्तम जग मांइ ॥
पर उपकारी परम पवित्त । सज्जन भाव भगत के चित्त ॥४॥
पंच परमगुरु प्रधान । ए सुमिरौ उर लक्षन आन ॥
जिनि के मत्र श्रति ही तुच्छ रहै, गुरु के बैन हिये जिन प्रहै ॥ || "
"पंच परमगुरु कौ नमी मंगलीक सिवलीक | आप समान भगत कौं करै तुरन्त तहकीक || "
अन्तिम दोहा
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"जो जाण निज जाणंतों वहै जात परवांण । जाण पणस्य जाणियै जाण पणौ परधान ॥"
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६४. जिनहर्ष ( वि० सं० १७१३-१७३८ )
बोहरागोत्रीय जिनहर्षसूरि और आद्यपक्षीय जिनहर्षसूरिसे कविवर जिनहर्ष पृथक् हैं । ये खरतरगच्छके प्रसिद्ध आचार्य जिनचन्द्रसूरिकी परम्परा में हुए थे । इनके गुरुका नाम वाचक शान्तिहर्ष था, जो एक मंजे हुए विद्वान् थे। जिनहर्षने उन्हीं से शिक्षा प्राप्त की थी। जिनहर्षने जन्मसे ही कविका हृदय पाया था । उन्होंने पचासों स्तुति-स्तवन, रास और छप्पयोंकी रचना की है। उनकी कृतियोंमें रस है । शायद इसी कारण उनको अपने समयमे ही कविवर कहा जाने लगा था । उनको 'जसराज' भी कहते हैं । उन्होने इस नामके आधारपर ही 'जसराज बावनी'की रचना की थी। उनका गुजराती और हिन्दी दोनों भाषाओंपर समानाधिकार था । आज उनकी अनेकों हिन्दी रचनाएं भी उपलब्ध हैं । वे साधु थे और घूमते
१. श्री गच्छ खरतर दीपतो, गच्छराज श्री जिनचन्द, सूरिस सूरि-सिरोमणी, वदै तास नरिंद वाचनाचारिज वदन वारिज, आर्य वचन विलास,
श्री शान्तिहरप वाचक तेणं, जिनहर्षे कोयो राम ॥
रत्नशेखर रत्नवती रास, प्रशस्ति, जैन गुर्जरकविप्रो, खण्ड २, भाग ३,
पृ० ११७० ॥