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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
रहना ही उनका काम था, किन्तु फिर भी वे पाटणमे अधिक रहे । उनका अन्तिम काल तो विशेष रूपसे वहाँपर ही बीता। __ कविवरका व्यक्तित्व मोहक और आकर्षक था। उनमें अनेकों ऐसे सद्गुण थे, जिनके कारण उनको लोक-प्रियता बहुत अधिक बढ़ गयी थी। जैनधर्मसम्बन्धी शुद्ध क्रियाओ और नियम-उपनियमोंका वे कठोरतासे पालन करते थे। क्रोध तो उन्होंने अपने जीवनमे कभी किसीपर नही किया। सरलता ही उनका जीवन था। उनके हृदयमे किसीके प्रति राग-द्वेषका भाव नहीं था। धैर्य और साहसके साथ उन्होने पंच महाव्रतोका पालन किया था। साधु वही है जिसके हृदयमें समता-रस उत्पन्न हो गया हो। जिनहर्षके समता-भावकी कहानियां उस युगमें ही चलने लगी थीं। उनका सबसे बड़ा काम गच्छ ममत्वका त्याग था, जिसके आधार रूपमें उन्होंने 'सत्यविजयपन्यास रास' की रचना की, जो अब प्रकाशित हो चुका है। उनके इस सद्गुणसे तपागच्छीय वृद्धिविजयजी बहुत अधिक प्रभावित थे । अन्तिम समयमै जब कि कविवरको व्याधि उत्पन्न हुई, तो वृद्धिविजयने ही उनकी अधिकसे अधिक सेवा की थी। अन्तिम आराधना भी उन्होंने करवायी। कविवरके भक्तोंने भी उनकी अन्तिम क्रिया ( माण्डवी रचनादि ) भक्ति-पूर्वक ही सम्पन्न की। कविकी भी अन्तिम श्वास पंचपरमेष्ठीका ध्यान करते हुए ही निकली।
जिनहर्षकी रचनाओंका संक्षिप्त परिचय 'जैन गुर्जरकविओ'मे प्रकाशित हो चुका है। इसके अतिरिक्त और भी कई कृतियां श्री नाहटाजीको प्राप्त हुई है। राजस्थानके जैन शास्त्रभण्डारोको ग्रन्थ-सूचियोसे भी इनकी कतिपय हिन्दी रचनाओंका पता लगा है । 'राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज' भाग ४ में भी इनको कुछ कृतियोंका विवरण छपा है। कविवर जिनहर्षकी स्वयंकी हस्तलिपिका एक चित्र 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित हुआ है। जसराज बावनी
इसकी रचना सं० १७२८ फाल्गुन बदी ७ गुरुवारके दिन हुई थी। इसकी १. कविवरके इन गुणोंका विवेचन 'कवीयण' के 'कविवर जिनहर्षगीतम् में हुआ है।
उनके दो गीत 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में पृ० २६१-६३ पर निबद्ध हैं। २. जैन गुर्जरकविओ, खण्ड २, भाग ३, पृष्ठ ११४४-११८० और भाग २, पृष्ठ
८१११६ । ३. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ५२ । ४. वहीं, पृ० २६० और २६१ के बीचमें। ५. जसराज बावनी, अन्त, ५७वॉ पद्य, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज,
भाग ४, पृ०८५