________________
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
२३५ एक प्रति संवत् १८५९ को लिखी हुई अभय जैनग्रन्थालय बीकानेरमें मौजूद है। यह प्रति श्री प्रतापसागरके पढ़नेके लिए कोटडीमे लिखी गयी थी। इसमे १३ पन्ने हैं, किन्तु बावनी केवल अन्तिम तीन पत्रोंपर ही अंकिन है। इसमें कुल ५७ सवैया है। एक दूसरी प्रतिका उल्लेख 'जैन गुर्जरकविओ' में हुआ है। यह प्रति पण्डित जीवविजयके शिष्य जसविजयकी लिखी हुई है। प्रारम्भमे हो 'ऊंकार' का माहात्म्य बताते हुए कवि कहता है,
"ऊंकार अपार जात आधार, सबै नर नारी संसार जपे है। बावन अक्षर मांहि धुरक्षर, ज्योति प्रद्योतन कोटि तपे है। सिद्ध निरंजन भेख अलेख सरूप न रूप जोगेन्द्र थपे है।
ऐसो महातम है ऊँकार को, पाप जसा जाके नाम खपे है ॥१॥" कविको अपने धर्ममें अटल श्रद्धा है। वह धर्मको छोड़कर अवर्मको स्वीकार करनेके लिए तैयार नही है। धर्मको त्याग कर अवर्मको लेना ऐसे ही है, जैसे चिन्तामणिको छोड़कर पत्थर ग्रहण करना और कामधेनुको छोड़कर बकरी स्वीकार करना।
"नग चिन्तामणि दारिक पत्थर जोउ, ग्रह नर मूरख सोई । सुंदर पाट पटंबर अंबर छोरिक भोढंण लेत है लोई॥ कामदूधा घरते — विडार के छेरि गहें मतिमंद जि कोई ।
धर्म कुंछोर अधर्म को जसराज उणे निज बुद्धि विगोई ॥ २॥" सन्त-परम्पराकी भांति कवि भी बाह्याडम्बरोंके विरोधमे है। उसकी दृष्टिमें सिर मुंडाना, जटा धारण करना, हाथसे केशलोंच करना, दिगम्बर रहना, शरीरपर भस्म रमाना और पंचाग्नि तप तपना सब कुछ व्यर्थ है। ऐमा करने-मात्रसे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता । मोक्षके लिए ज्ञान अनिवार्य है,
"क्षौर सुसीस मुंडावत हैं केइ लंब जटा सिर केई रहावें। लूंचन हाथ सूं केई करे रहै मून दिगम्बर केइ कहावें ॥ राषसूं कई लपेट रहें केइ अंग पंचांगनि माहें तपावें।
कष्ट करे जसराज बहुत पे ग्यान बिना शिव पंथ न पावें ॥५६॥" उपदेश-छत्तीसी
इसको रचना संवत् १७१३ में हुई थी। इसको एक प्रति अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेरमें मौजूद है। एक दूसरी प्रति वह है जिसका उल्लेख 'जैन गुर्जर
१. जैन गुर्जरकविओ, भाग २, पृष्ठ ११६ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० १०१ ।