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________________ २३६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कविओ में हुआ है। इसमें केवल ३६ पद्य हैं । इसका प्रारम्भ हो भगवान् जिनेन्द्रको स्तुतिसे किया गया है। संसारके माया-मोहसे मनको हटाकर भगवान् जिनेन्द्रके चरणोंमें समर्पित कर देनेका उपदेश इस काव्यमे दिया गया है। ऐसा अनेक भक्त कवियोने किया है। स्पष्ट रूपसे ही यह उपदेश दर्शन और सिद्धान्तजन्य उपदेशसे पृथक् माना जायेगा । इसका आरम्भिक पद्य देखिए, "सकल सरूप यामें प्रभुता अनूप भूप, धूप छाया माया है न जैन जगदीश जू । पुण्य है न पाप है न शील है न ताप है, जाप के प्रज्ञा प्रग. करम अतीस जू॥ ज्ञान को अंगज पुंज सुख वृत्त को निकुंज, अतिशय चौंतीस अरु वचन पैंतीस जू । ऐसो जिनराज जिनहरस प्रणमि, उपदेश की छतीसी कहूं सवइये छतीस जू ॥" चौबीसी इसमे चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति है । कुल २५ पद्य है। पद्य रागोंमे लिखे गये है। अर्थात् उनका स्वर संगीतात्मक है। इसकी एक प्रति सं० १७९९ माघ बदी १० को लिखी हुई अभय जैन ग्रन्थालयमे मौजूद है। इस प्रतिको पण्डित भुवनविशाल मुनिने मारीटमे लिखा था। प्रारम्भमे ही भगवान् आदिनाथकी भक्तिमें लिखा गया एक पद देखिए जो कि 'राग ललित'में निबद्ध हुआ है, "देख्यौ ऋषम जिनंद तव तेरे प्रातिक दूरि गयो, प्रथम जिनंद चंद कलि सूर-तरु कंद । सेवे सुर नर इंद आनंद भयौ ॥३॥०॥ बाके महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढ़ी संसार, कोऊ न लहत पार जगत्र नयौ । पंचम आरैमें आज जागै ज्योति जिनराज, भव सिंधुको जिहाज आणि कै ढयो॥२॥दे. बण्या अद्भुत रूप, मोहिनी छवि अनूप, धरम को साचौ भूप, प्रभु जी जयो। कहै जिन हरषित नयण भारे निरखित, सुख धन बरसत, इति उदयौ ॥३॥दे॥ ___ कविका यह दृढ़ विश्वास है कि जो भक्ति-भावपूर्वक चौबीसों तीर्थंकरोंकी कीतिका गान करता है, उसे नौ प्रकारकी निधियां उपलब्ध हो जाती हैं । भगवान् कल्पवृक्षके समान हैं। उनके सामने की गयी प्रत्येक याचना फलीभूत होती है। चौबीसों भगवान् सुख प्रदान करनेवाले हैं , १. जैन गुर्जरकविप्रो, खण्ड २, भाग ३, पृ० ११७७ । २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग ४, पृ० १२३ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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