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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि प्रतिसे यह स्पष्ट है कि कविका उपनाम 'चन्द्र' था। इतने विवरणोंसे कविका रचनाकाल अठारहवीं शताब्दीका प्रथम पाद प्रमाणित होता है। ग्रन्थके एक-दो स्थल देखिए,
राम और जानकीमे अपरिमित गुण है, भला इतनी सामर्थ्य किस कविमे है, जो अपनी वाणीसे उनका वर्णन कर सके। किन्तु कवि 'चन्द' ने अपने देव, गुरु और धर्मको सिर झुकाकर यत्किचित् कहनेका प्रयास किया है,
"राम जानकी गुन विस्तार, कहे कौन कवि वचन विचार ।
देव धरम गुरु कुं सिर नाय, कहै चंद उत्तिम जग माय ॥" रावणको जीतकर राम सीताको लेकर अयोध्यापुरीमे आ गये हैं। राजा रामके शासनमे सभी सुखी है, निहाल है। स्वर्गके समान मनमाने सुखोंका उपभोग करते है, किन्तु कोई उच्छृखल और पापी नहीं है। रामका राज्य न्यायपर आधारित है। धार्मिक जन सदैव रामके गणोंको गाते है।
"रावन कौं जीत राम सीता विनीता आये,
___ वरतै सुनीत राज पलक सुहावनौ। सुष में विनीत काल दुष को वियोग हाल,
सव ही निहाल पाप पंथ मैं न आवतो ॥ वाही वर्तमान दीसै सब ही सुबुध लोक,
सुरग समान सुष भोग मनभावनौ । कोऊ दुषदाई नाहि सजन मिलायो मांहि,
सब ही सुधर्मी लोक राम गुन गावनौ ॥" एक महत्त्वपूर्ण प्रतिका उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी-पत्रिकाके बारहवें खोज विवरणमे हुआ है। यह प्रति बाराबंकीके जैन मन्दिरसे उपलब्ध हुई थी। इसका लिपि-काल सं० १८६२ दिया हुआ है। इसपर भी रचना संवत् १७१३ ही पड़ा है। इस प्रतिमे कुल ३०० पृष्ठ है । इस प्रतिमे दिये हुए कुछ प्रारम्भिक दोहे और चौपाइयां देखिए, दोहरा
"अनमो परम पुनीत नर, वरधमान जिनदेव । लोकालोक प्रकास तस, करै समकिती सेव ॥ १ ॥ तस गधर गौतम प्रमुख, धर्मवन्त धनपात ।
जिनसेवत भवि जन सदा, विलै मोहतम राति ॥ २॥" १. का० ना० प्र० पत्रिकाका बारहवाँ त्रैवार्षिक विवरण, एपेन्डिक्स २, पृ० १२६१ ।