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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य २३१ पूर्वार्धमे हुए थे। उन्होने 'समाधिपचबीसी', 'गौतमस्वामी रास', 'कलावती चौपई', 'मृगलेखनी चौपई', 'ऋषभ चरित' आदि अनेक सुन्दर गुजराती काव्योंकी रचना की। तीसरे रायचन्द वे थे, गान्धीजी जिन्हें अपने गुरुके समान पूज्य समझते थे । उन्होने 'अध्यात्मसिद्धि'की रचना की थी। इनमे-से दूसरे रायचन्दका उल्लेख अगरचन्दजी नाहटाने 'राजस्थानमे हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज' द्वितीय भागमे भी किया है। उनकी दृष्टिम इन्ही रायचन्दने कल्पसूत्रका हिन्दी पद्यानुवाद किया था। प्रकृत रायचन्द इन सभीसे भिन्न है। वे हिन्दीके एक उच्चकोटिके कवि थे। उन्होंने 'सीताचरित'को रचना वि० सं० १७१३ मे को थी। यद्यपि इस ग्रन्थका आधार आचार्य रविषेणका पद्मपुराण था, किन्तु फिर भी उसमे अनेकों स्थल ऐसे है, जो मौलिक है। भाषामे जीवन है । सीताके चरित्रको प्रमुखता दी गयी है, और उसमे नारीगत भावोंका चित्रण उत्तम रीतिसे अंकित हुआ है। वैसे भी कविमें दृश्योंको उपस्थित करनेकी सामर्थ्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि कविको बाह्य और अन्तः दोनों ही प्रकृतियोंका सूक्ष्म ज्ञान था। उसने एक ओर तो मानवके मर्मको पहचाना है और दूसरी ओर प्रकृतिको रमणीयताको अंकित किया है। यद्यपि इसमे तुलसी-जैसी भावुकता तो नही थी, किन्तु गम्भीरता वैसी ही थी। ___ इस महाकाव्यमे ३६०० पद्य है । इसकी एक प्रति श्री नया मन्दिरजी धर्मपुरा दिल्लीके शास्त्रभण्डारमे 'अ ३२ ग' पर मौजूद है। एक दूसरी प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरजीके वेष्टन नं० २०९५ मे निबद्ध है। यह प्रति सं० १७७८ की लिखी हुई है । उपलब्ध प्रतियोमे सबसे अधिक प्राचीन है। इसमे १९६ पृष्ठ हैं । इसकी दशा पूर्ण एवं शुद्ध है। एक तीसरी प्रति इसी मन्दिरके गुटका नं० २१९ में संकलित है। इसका रचनाकाल संवत् १७१३ दिया हुआ है। इसमे कुल २५४९ पद्य हैं । एक चौथी प्रति वह है जिसका उल्लेख 'मिश्रबन्धु विनोद', भाग २ की संख्या ३८९।२ पर हुआ। इसमें भी रचनाकाल वह ही दिया हुआ है। इस १. गुर्जरकविओ, भाग ३, पृ० १४२ । २. यह कृति 'श्रीमद् राजचन्द्र' नामके ग्रन्थमें छप चुकी है। ३. संवत सतरह तेरोतर, मगिसर ग्रंथ समापति करें। नया मन्दिर, देहलीवाली प्रति ।। ४. कीयो ग्रन्थ रविषेण नैं रघुपुराण जिय जाण । . वहै अरथ इण मे कह्यो, रायचंद उर आंण ॥२७॥ ५. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४६१ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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