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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
___इसमे ३०१ पद्य है। इसको प्रतिलिपि लाभपुर नामके नगरमे श्री विजय सूरिने वि सं० १७०४ में करवायी थी। यह प्रति जयपुरके बड़े मन्दिरमे, वेष्टन नं० १८९९ मे निबद्ध है । एक दूसरी प्रति लणकरणजी पाण्डयाके मन्दिर, जयपुरके गुटका नं० १४४ मे पत्र २९३ से ३११ तक संकलित है । इसमे समवसरणकी शोभाका वर्णन करते हुए लिखा है।
"रतन सिषर नम मैं छवि देत, देव देखि उपजावत हेत । रंगभूमि तिनि साला माहिं, ऐसी सोम और कहुं नाहिं ॥६॥ तिनमैं नर्तत अमरांगना, हाव भाव विधि नाटक धना।
चंचल चपल सोम बीजुली, जनु सोमा धन विचि ऊछली ॥६८॥ किंनर सुरकर वीणा लिये, गावत मधुर मधुर इक हिये ।
सुणि सुनि मोहैं कौत्हली, साता जिन सुमरै भूवली ॥७॥" एकीभाव-स्तोत्र
यह वादिराजसूरिके संस्कृत 'एकीभाव स्तोत्र'का आलम्बन लेकर लिखा गया है। इसकी प्रतियां जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० ९५, २१५ और ३२० मे निबद्ध है। नं० ९५ वाले गुटकेको प्रतिलिपि सं० १८१० की की हुई है। इससे स्पष्ट है कि इसकी रचना सं० १८१० से पूर्व ही हुई होगी। भूधरदासने भी एक 'एकीभाव स्तोत्र' बनाया था, किन्तु हीरानन्दका यह स्तोत्र उससे अधिक सरल, सरस और प्रवाहपूर्ण है।
६३. रायचन्द (वि० सं० १७६३)
रायचन्द नामके अनेकों कवि हुए हैं। मिश्रबन्धुओने एक रायचन्द नागरका उल्लेख किया है, जिन्होंने 'गीतगोविन्दादर्श' और 'लीलावती' की रचना की थी। इनका रचनाकाल १७०० के लगभग था। गुजरातीमे तीन रायचन्द हुए हैं, जिनमे से 'रायचन्द पहेला' गुणसागरके शिष्य थे। इन्होने 'विजय सेठ विजयासती रास' नामका ग्रन्थ स० १६८२ मे लिखा था। दूसरे रायचन्द १९वो शताब्दीके
इतना कारन लहि करि होर, मनमे उद्दिम धरै गहीर । समोसरन कृत रचना भेद, जथा पुरान समस्त निवेद ॥२९॥
वही, पृ० ३११॥ १. मिश्रबन्धु विनोद, भाग २, पृ० ४२५ । २. गुर्जरकविश्रो, प्रथम भाग, पृ० ५१४ ।