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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि शत्रुजय स्तवन
इसकी रचना १७वी शताब्दीके प्रथम पादमें हुई। इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्री मोहनलाल दुलीचन्द देसाईके पास है । उसका आदि-अन्त इस प्रकार है । आदि
“पय प्रणमी रे, जिणवरना शुभ भाव लई। पुंडरगिरि रे, गाइसु गुरु सुपसाऊ लई ॥"
अन्त
"इम करीय पूजाय थाजो गहि संघ पूजा आदरई, साहम्मिवच्छल करई मवियाँ, भव समुद्र लीला तरई, संपदा सोहग तेह मानव, रिद्धि वृद्धि बहु लहई,
अमरमाणिक सोस सुपरइ, साधु कीरति सुख लहई ॥" नमिराजर्षि चौपई ___ इसकी रचना नागौरमे वि०सं० १६३६ माघ शुक्ला ५ को हुई थी। इसकी प्रति १७वी सदीकी लिखी हुई ही मौजूद है, जिसमें ५ पत्रे है। अन्य स्तोत्र-स्तवन ____ 'एकादशी स्तोत्र', 'विमलगिरि स्तवन', 'आदिनाथ स्तवन', 'सुमतिनाथ स्तवन', 'पुण्डरीक स्तवन', 'जिनादि कवित्त', 'नेमिस्तवन' और 'नेमिगीत' भी साधुकीत्तिकी हो रचनाए हैं।
३४. हीरकलश (वि० सं० १६२४)
हीरकलश खरतरगच्छके श्वेताम्बर साधु थे। इसी शाखामे श्री जिनचन्द्रसूरिका जन्म हुआ था, जिनका नाम सुनते ही वादि जन पलायन कर जाते थे। उन्हींके पट्टपर आगे चलकर श्री देवतिलक उपाध्याय विराजमान हुए। उनमें अगाध पाण्डित्य और सुजनताका अभूतपूर्व समन्वय था। उनके शिष्य हर्षप्रभु नामके मुनि हुए । हीरकलश उन्हींके शिष्य थे।
१. जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २२०-२२१ । २. जैनगुर्जरकविश्रो, भाग ३, पृष्ठ ६६६ । ३. वही, पृष्ठ ७००। ४. जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृष्ठ २३४-२४० तथा भाग ३, पृष्ठ ७२५-२८ ।