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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य ३३. साधुकीर्ति ( वि० सं० १६१८) ___ साधुकीत्तिकी गुरु-परम्परा इस प्रकार है : मतिवर्धन, मेरुतिलक, दयाकलश और अमरमाणिक्य ।' अमरमाणिक्य साधुकोत्तिके गुरु थे। ये खरतरगच्छके साधु थे, उन्होंने स्यान-स्थानपर जिनचन्द्रसूरिका स्मरण किया है। एक साधुकीर्ति और हो गये है, जो बड़तपगच्छके जिनदत्तमूरिके शिष्य थे। दोनोंमे भिन्नता स्पष्ट है।
साधुकोत्ति भक्त-कवि थे। उन्होंने अनेक स्तुति-स्तोत्रोंकी रचना की। उनमें प्रसिद्ध ये है : 'पदसंग्रह', 'सत्तर-भेदी पूजाप्रकरण', 'चूनड़ी', 'रागमाला', 'शत्रुजय स्तवन', 'नमिराजर्षि चौपई'। इनकी भाषापर गुजरातीका विशेष प्रभाव है। सत्तर-भेदी पूजाप्रकरण
इसकी रचना अणहिलपुरमें वि० सं० १६१८ श्रावण शुक्ला ५ को हुई थी। इसकी हस्तलिखित प्रति जयपुरके ठोलियोंके दि. जैन मन्दिरमे गुटका नं० ३३ में संकलित है। श्री कस्तूरचन्द कासलीवालने इसका रचनाकाल वि. सं० १६५८ लिखा है, जब कि इसके अन्तिम पदसे वि० सं० १६१८ सिद्ध है। इसका आदि-भाग इस प्रकार है,
"ज्योति सकल जगि जागती है, सरसति समरसु मंद ।
सत्तर सुविधि पूजातणी, पमणिसु परमानंद ॥" चूनड़ी
इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरमे गुटका नं०१०२ मे निबद्ध है। इस गुटकेका लेखनकाल सं० १६४८ है, अतः यह सिद्ध है कि रचना सं० १६४८ से पहले ही हुई होगी। इसकी पूरी रचना 'थाउलपुरि सोहामणउ, गढ मढ मन्दिर वाई हो' चालमे की गयी है। रागमाला
इसकी प्रति भी ठोलियोके दिगम्बर जैन मन्दिरमें गुटका नं० ३३ में निबद्ध है। १. साधुर्कात्ति, आषाढ़भूति-प्रबन्ध, अन्त भाग, पद्म १८२-१८३, जैनगुर्जरकविप्रो,
भाग १, पृ० २२० । २. संवत् १६ अठार श्रावण सुदि । पंचमि दिवसि समाजइ ॥३॥ . ___ जैनगुर्जरकविओ, भाग १, पृ० २२० ।