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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
श्रुतपंचमीका फल यही है कि जो कोई नर, मनमे संयम धारण कर इस व्रतको करता है, वह कभी दुखी नहीं होता और इस दुस्तर संसार-समुद्रको तैर जाता है,
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"सियपंचमि फलु जाणइ लोइ, जो नर करइ सो दुहिउ न होइ । संजम मन धरि जो नरु करइ, सो नरु निश्चइ दुत्तरु तरइ ॥ १-२ ॥ "
श्रुतपंचमी व्रतका अर्थ है, श्रुतदेवीकी भक्ति करना । श्रुतदेवीका ही दूसरा नाम शारदा या सरस्वती है । कविने चौबीस तीर्थंकरोसे प्रार्थना की है कि शारदा उसे अपने सेवकके रूपमे स्वीकार कर ले। जो शारदा हंसपर चढ़कर चलती है, जिसके हाथमे वीणा सुशोभित है, जो जिनेन्द्रके शासन-प्रसार मे तल्लीन है, जिसने चारों वेदोको साध लिया है, जो 'अठदल कमल पर विराजती है और जिसके चन्द्र-जैसे मुख से अमृत झरता विद्धणु ऐसी शारदाको भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं,
"ओंकार जिणइ चडवीस, सारद सामिनि करउ जगीस । वाहन हंस चडी कर वीण, सो जिण सास णिश्रच्छइ लीण ॥ भटदल कमल ऊपनी नारि, जेण पयासिय वेदइ चारि । ससिहर बिंदु अमियरसु फुरइ, नमस्कार तसु 'विद्धणु' करइ ॥ ३-४ ॥ "
कविने णमोकार मन्त्र के प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए लिखा है कि संसारके चिन्ता- समुद्र में फँसकर यह जीव, घरके सभी धर्म-कर्म विस्मरण कर जाता है वह क्रोध, मान, माया, मद, मोह और सन्देहमें पड़कर, मुनिवरोंके योग्य न तो दान देता है न तप तपता है, और न भोग ही भोगता है । जब श्रावकके घरमें जन्म लिया है, तो प्रति दिन मनमे मन्त्रका चिन्तवन करना ही चाहिए ।
णमोकार
सयलइ वीसरइ ।
"चिंतासायर जबि नरु परइ, घर धंधल कोहु मानु माया (मद ) मोहु, जर झंपे
परियउ संदेहु ||
दान न दिन मुनिवर जोगु, ना तप तपिउ न भोगेउ भोगु ।
सावय घरहि लियड अवतारु, अनुदिनु मनि चिंतहु नवकारु ॥५-६ ।। "
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