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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि मुर्शिदाबादमे हुई थी। इसकी एक प्रति बीकानेरके 'अभय जैन ग्रन्थालय'मे मौजूद है। इसमें ५२ पद्य हैं । उसपर उपर्युक्त रचना-काल दिया हुआ है। दूसरी प्रति 'जैन सिद्धान्तभवन आरा'के हस्तलिखित ग्रन्थोमें मौजूद है। यह प्रति भी शुद्ध एवं पूर्ण है। एक प्रति वह है, जिसका उल्लेख श्री मोहनलाल दुलोचन्दजी देसाईने किया है। इस प्रतिमें भी ५२ पद्य है। प्रति पूर्ण एवं
इसमें जैन-परम्पराके अनुसार भगवान् सिद्ध, जो निराकार और अदृश्य है, की उपासना की गयी है। निराकार आत्माका वर्णन होने के कारण उसमें अव्यात्म और वैराग्यका पुट अधिक है। निर्गुण-ब्रह्मकी भक्तिमें सन्त कवियोंकी रचनाएँ जैसे मधुरता-सिक्त हैं, वैसे ही इसमे भी आकर्षक ढंगसे भावोंको गूंथा गया है। ओकार रूप भगवान् सिद्धकी भक्तिमें कहा गया एक पद्य देखिए, "आदि ओंकार आप परमेसर परम जोति,
अगम अगोचर अलख रूप गायौ है । द्रव्यता में एक पै अनेक भेद परजो मैं,
___जाको जसवास मत बहुंन मैं छायौ है। त्रिगुन त्रिकाल मेव तीनों लोक तीन देव,
___ अष्ट सिद्धि नवों निद्धि दायक कहायौ है। अक्षर के रूप में स्वरूप भुअलोक हुंको,
ऐसो ओंकार हर्षचन्द मुनि ध्यायो है।" मोकार मन्त्रकी प्रशंसा करते हुए कविने लिखा है कि इसके बराबर दूसरा मन्त्र नहीं है। यह सिद्धोंको सिद्धि, सन्तोंको ऋदि, महन्तोको महिमा, योगियोंको योग, देव और मुनियोंको मुक्ति, तथा भोगियोंको भुक्ति देता है । यह चिन्तामणि, १. संवत् अठारे से अधिक एक कातो मास,
पख उजियारे तिथि द्वितीया सुहावनी। पुर में प्रसिद्ध मखसुदाबाद बंग देस,
जहाँ जैन धर्म दया पतित को पावनी ।। ब्रह्मबावनी, ५१वें पद्यकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ। २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, चतुर्थ भाग, पृष्ठ ८८-८९ । ३. प्रेमी अमिनन्दन ग्रन्थमें निबद्ध जैन सिद्धान्तभवन, पाराके कुछ हस्तलिखित
हिन्दी-ग्रन्थ, पाँचवीं संख्या । ४. जैन गुर्जरकविमो, तीजो माग, खण्ड १, पृष्ठ ८,६ । ५. वही, पृष्ठ ।