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________________ तुलनात्मक विवेचन ४६१ है। "नयन जो देखा कंवल भा, निरमल नोर सरीर" मे ऐसी ही बात है। जैन कवि द्यानतरायने भी ब्रह्मके दर्शनसे चारों ओर छाये हुए वसन्तको देखा है। "तुम ज्ञान विभव फूली बसन्त, यह मन मधुकर सुख सों रमंत" उसोका निदर्शक है । कवि बनारसीदासके ब्रह्मके सौन्दर्यसे तो समूची प्रकृति ही विकसित हो उठी है, "विषम विरष पूरो भयो हो, आयो सहज वसंत । प्रगटी सुरुचि सुगंधिता हो, मन मधुकर मयमंत ॥" कबीरमे व्यष्टिमलकता अधिक है, तो जायसीमें समष्टिगतता और जैन कवियोमें दोनों ही समान रूपसे प्रतिष्ठित हैं। उनका आत्मब्रह्म घटमें रहता है, किन्तु उसका सौन्दर्य समूचे लोकालोकमें व्याप्त है। सतगुरु जैन सन्त और कबीरदास आदि 'निर्गुनिए' साधुओंने गुरुकी महत्ता समान रूपसे स्वीकार की है। दोनोंने ही गुरुके प्रसादको पानेकी आकांक्षा को, किन्तु जहाँ कबीरदासने गुरुको ईश्वरसे भी बड़ा माना, वहां जैन सन्तोंने ईश्वरको ही सबसे बड़ा गुरु कहा है। जैन आचार्योने पंच परमेष्ठीको 'पंचगुरु'की संज्ञासे अभिहित किया है। सोलहवीं शताब्दीके कवि चतरुमलने 'नेमीश्वर गीत'में लिखा है, "पंचगुरुओंको प्रणाम करनेसे मुक्ति मिलती है।" वैसे गुरुके प्रसादसे भगवान् मिलनेकी बात दोनों ही को स्वीकार है । कबीरदास तो गुरुके ऊपर इसीलिए बलिहार होते हैं कि उन्होंने गोविन्दको बता दिया है । सुन्दरदासके गुरु भी दयालु है, क्योंकि उन्होंने आत्माको परमात्मासे मिला १. जायसी ग्रन्थावली, पं० रामचन्द्र शुक्ल सम्पादित, द्वितीय संस्करण, मानसरोदक खण्ड, ८वीं चौपाईका दोहा, पृ० २५ । २. द्यानतपदसंग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ५८वाँ पद, पृ० २४ । ३. बनारसी विलास, जयपुर, अध्यात्मफाग, पच दूसरा, पृ० १५४ । ४. गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दयो बताय ।। कबीरदास, गुरुदेवको अंग, सन्तसुधासार, वियोगी हरि सम्पादित, सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली, १४वीं साखी, पृ० १२० । ५. लहहि मुकति दुति दुति तिरं, पंच परम गुरु त्रिभुवन सारु ॥ चतरुमल, नेमीश्वरगीत, भामेरशास्त्रभण्डार, मंगलाचरण ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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