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तुलनात्मक विवेचन प्रसन्न हुए हैं और अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए उन्होंने कहा, "सतगुरुकी महिमा अनन्त है, उन्होंने अनन्त उपकार किया है, क्योंकि उन्होंने मेरे अगणित ज्ञानचक्षुओंको खोलकर असीम ब्रह्मका दर्शन कराया है।" एक दूसरे स्थानपर उन्होंने लिखा, "मैं तो अज्ञानसे भरी लौकिक मान्यताओं और पाखण्डसे ओत-प्रोत वेदके पीछे चला जा रहा था कि सामने सतगुरु मिल गये और उन्होने ज्ञानका दीपक मेरे हाथमे दे दिया।" हृदयमें ज्ञानका प्रकाश करनेवाला गुरु भगवान्को कृपासे मिलता है । जैन सन्त चतरुमलने जादौराय भगवान् नेमीश्वरके गुण गानेसे ही गुरु गौतमके प्रसादको पाना स्वीकार किया है।
सतगुरुका मिलना तभी सार्थक होगा, जबकि शिष्यका हृदय भ्रम, संशय और मिथ्यात्वसे ओत-प्रोत न हो। यदि ऐसा होगा तो सतगुरुका उपदेश उसके हृदयमें पैठेगा नहीं। यद्यपि आत्माका स्वभाव ज्ञान है किन्तु सांसारिक मिथ्यात्वसे युक्त होनेके कारण उसे सतगुरुका अमृतमय उपदेश भी रुचता नहीं। इसीको पाण्डे रूपचन्दने बड़े ही सरस ढंगसे उपस्थित किया है,
"चेतन अचरज मारी, यह मेरे जिय आवै अमृत वचन हितकारी, सद्गुरु तुमहिं पढ़ावै सदगुरु तुमहिं पढ़ावै चित दै, अरु तुमहूं हो ज्ञानी
तबहूं तुमहिं न क्यों हूं आवै, चेतन तत्त्व कहानी ।" सन्त कबीरदासके भी ऐसे ही विचार है, "सतगुरु वपुरा क्या कर सकता है, यदि 'सिख' ही में चूक हो। उसे चाहे जैसे समझाओ, सब व्यर्थ जायेगा, ठीक वैसे ही जैसे फूंक वंशीमें ठहरती नहीं, अपितु बाहर निकल जाती है। कवि
१. सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ॥ कबीरदास, गुरुदेव को अंग, तीसरी साखी, कबीर ग्रन्थावली, चौथा संस्करण,
पृ०१। २. पीछ लागे जाइ था, लोक वेद के साथि ।
आगे थे सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥
देखिए वही, ११वीं साखी, पृ० २। ३. गुरु गौतम मो देउं पसीउ, जो गुन गाउं जादुराय ।
चतरुमल, नेमीश्वर गीत, मंगलाचरण, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर, पृ० २३१ । ४. परमार्थ जकड़ी संग्रह, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, १९११, पहला पद्य, पृ०१ । ५. कबीरदास, गुरुदेव को अंग, २१वी साखी, कबीर ग्रन्थावली, पृ०३।