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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि बनारसी दासने 'अध्यात्म बत्तीसी'में लिखा है, "सहजमोह जब उपशमै, रुच सुगुरु उपदेश । तब विभाव भवथिति घट, जगै ज्ञान गुण लेश।" सतगुरुकी देशना आस्रवोंके लिए दीवार, कर्म कपाटोंको उघाड़नेवाली और मोक्षके लिए पैड़ीका काम करती है, किन्तु केवल उन्हीके लिए जिनको भवथिति घट गयी है, मूढ तो उसका लेशमात्र भी नहीं समझता।
इस भव-समुद्रसे पार करानेके लिए गुरुको जहाज बनानेकी बात भी बहुत पुरानो है । सत्तरहवीं शताब्दीके जैन कवि हेमराजने 'गुरु-पूजा' के प्रारम्भमे ही गुरु महाराजको महामुनिराजकी उपाधिसे विभूषित करते हुए कहा, "चहुँगति दुख सागर विषै, तारन तरन जिहाज । रतनत्रय निधि नगन तन, धन्य महामुनिराज।" अर्थात् इस दुःख-सागरसे पार करनेके लिए महामुनिराज ही जहाजरूप है। अठारहवीं शताब्दीके कवि भूधरदासने उस गुरुको मनमें बसानेकी अभिलाषा प्रकट की है, जो 'भव-जलधि-जिहाज' है। ऐसे ऋषिराज गुरु स्वयं भी तिरते है और दूसरोंको भी तारते है। इसी शताब्दीके श्री द्यानतरायने भी अपने 'द्यानत विलास' मे गुरुको जहाज़ बनाते हुए लिखा है, "तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई । धानत निशि दिन निरमल मन मे, राखो गुरु-पद पंकज दोई।"* सन्त दरिया साहबने सतगुरुरूपी जहाजपर ही अधिक विश्वास किया है, उन्होने लिखा है, "संसाररूपी दरिया अगम्य है, सतगुरुरूपो जहाजपर अपने हंसको चढ़ाकर उसे पार कर जाओ, तभी
१. बनारसीदास, अध्यात्म बत्तीसी, बनारसीविलासे, जयपुर, २७वॉ पद्य, पृ० १४६ । २. यह सतगुरु दी देशना, कर आस्रव दीवाड़ि।
लद्धी पैडि मोखदी, करम कपाट उघाड़ि॥ भवथिति जिनको घट गई, तिनको यह उपदेश । कहत 'बनारसिदास' यों, मूढ़ न समुझे लेश ॥ बनारसीदास, मोक्षपैड़ी, बनारसीविलास, जयपुर, १९५४ ई०, दोहा २३-२४,
पृ० १३६ । ३. पाण्डे हेमराज, गुरुपूजा, पहला दोहा, बृहन्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० ३०६। ४. ते गुरु मेरे मन बसो, जे भव जलधि जिहाज ।
आप तिर पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिराज ॥ भूधरदास, 'ते गुरु मेरे मन बसो' पद, अध्यात्म पदावली, भारतीय शानपीठ, काशी, पृ०५४। ५. यानतराय, धानतविलास, कलकत्ता, पद २३वाँ, पृ० १५ ।