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________________ २९८ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि में अपराध अनेक किया जो, माफ करो गुणराज ॥ और देवता सब ही देप्या, खेद सहो बिन काजि ॥ थाको जस तो सुर नर गावे, पावै पद सिव काज ॥ देवाब्रह्म चरणां चित ल्यावै, सेवग करि हित काज ।" देवाब्रह्मको एक अन्य रचनाका नाम 'सासबहूका झगड़ा' है, जो पदोंके रूपमें ही लिखी गयी है। इसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोंके जैन मन्दिरमे वेष्टन नं. ४३८ मे निबद्ध है । इसमे केवल १७ पद्य है । राजस्थानीका प्रभाव है। ७८. सुरेन्द्रकीति मुनीन्द्र (वि० सं० १७४० ) ___ ये मूलसंघ बलात्कार गणकी नागौर शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकीत्तिके शिष्य थे। सुरेन्द्रकीत्ति सं० १७३८ की ज्येष्ठ शुक्ला ११ को भट्टारक पदपर अधिष्ठित हुए थे और ७ वर्ष तक रहे। वे विरथरा ग्रामके निवासी थे। गोपाचल गढ़ अधिक जाया करते थे। इनका गोत्र पाटणी था। इन्होने हिन्दीमें 'आदित्यवार कथा' और अनेक सरस पदोंकी रचना की थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'पंचमास चतुर्दशी व्रतोद्यापन' और 'ज्ञान पच्चीसी व्रतोद्यापन' नामकी कृतियां हिन्दी जयमालाओंके रूपमे लिखी। वे अर्हन्त-भक्तिकी प्रतीक है। एक दूसरे सुरेन्द्रकोत्ति और हुए हैं। उनका सम्बन्ध काष्ठासंघ, नन्दीतटगच्छसे था। वे इन्द्रभूषणके शिष्य थे और उनके उपरान्त भट्टारक बने । उन्होंने अनेक यन्त्र और मूर्तियोकी स्थापना की। उन्होने कल्याणमन्दिर, एकीभाव, विषापहार और भूपाल स्तोत्रोंका हिन्दी छप्पयोंमे रूपान्तरण भी किया था। हिन्दीमे कोई मौलिक रचना उन्होंने नही लिखी। इनका समय सं० १७४४ से १७७३ माना जाता है। तीसरे सुरेन्द्रकीर्ति वे थे, जो बलात्कार गण, जेरहट शाखाके सकलकोत्तिके उपरान्त सं० १७५६ मे भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित हुए। इन्होने किसी हिन्दी रचनाका निर्माण नहीं किया। चौथे भट्टारक बलात्कारगण दिल्ली जयपुर शाखाके क्षेमेन्द्रकीत्तिके शिष्य थे। वे सं० १८२२ में भट्टारक बने थे। इनसे
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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