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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य और जैन पंचायत के बीच मन्दिरको लेकर झगड़ा हुआ। लोगोंने उसे समझाया वह माना नही | देवाब्रह्मजोने उसे निम्नलिखित पंक्तियो मे समझाया --- मन बड़ा कारण जी, " झगड़ा मैं कछु हाथ न आवै, अरथ बिनां ही मार । बांधै करम अपार जी ॥ और ठिकाण पाप करै सो मंदिर में कटि जाय । जिन मंदिर में दोष उपावै, कैसे उतरे पार जी ॥ भूत प्रेत लागै छै ज्यां कों, बैद उतारै आप । क्रोध मान की चोकड़ी को, ग्यान षिमां उतार जी ॥ किसका मंदिर किसकी संपति, किसका ये घर दार | सुनको मेलो बरायो जो, झूठो सब संसार जी ॥ " देवाब्रह्मजीका एक 'विनती संग्रह' जयपुरके बधीचन्दजी के मन्दिर में विराजमान गुटका नं० ५४ मे संकलित है । इस गुटके में ३२ पन्ने है । महावीरजी अतिशय क्षेत्रके शास्त्र भण्डार मे भी एक प्राचीन लिखा हुआ गुटका है, जिसमे देवाब्रह्मजी - की विनतियाँ और पद लिखे हुए है । इस गुटके की एक विनती देखिए, २९७ ." अंजनरु चौर जू सात बिसन मैं, ताकूं भी जिन तारयो । मील सरीषो पापी प्राणी, भौ सागर मैं उबारथौ ॥ श्री जिनदेव पाया जी, उदै मेरा भाग आया जी ॥ मडक जौंषि पसूतणीं, जिहि दरसण भाव लगायो । गज पग नीचे प्राण छोड्यौं, सुरंगा मैं पद पायौ ॥ घोटी जाति चिंडाल की जी, घात करै अधिकाय । जिनवर नांव जप्पां थकां जी, आवागमण मिटाय ॥ सरधा करिकै पूजै ध्यावै, मन वंछित फल पावै । देवाब्रह्म चरणांचित लाबै, करम कलंक मिटावै ॥ " देवाब्रह्मजी के पद दि० जैन मन्दिर बड़ौतके पदसंग्रहको एक हस्तलिखित प्रतिमें अंकित है । उनके पदोंका एक संकलन जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके शास्त्र भण्डार के पदसंग्रह ४९३ सं० मे भी रखा है। उनके पदोंका प्रसादगुण पाठकके मनको मोहित किये बिना नही रहता । एक पद इस प्रकार है, "जगपति ९. वही, पद्य ११ - १४ | ३८ त्योरा ला महाराज, विडद विचारो ला महाराज ॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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