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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य २११ अलौकिक है, अत. उसे सूंघनेको सामर्थ्य नाकमें नहीं है। और यदि कोई भुक्तभोगी उसका वर्णन करे तो उसपर कान विश्वास नहीं करते । "आतम अनुमव फूल की, कोउ नवेली रीति ।। नाक न पकरै वासना, कान गहै न प्रीति ॥" भक्त वही जो भगवान्का होकर रहे । यहाँ आनन्दधन भी अपने आराध्यदेव ब्रजनाथके हाथों बिक गये है। उनको ब्रजनाथके अतिरिक्त और कोई ऐसा देव दृष्टिगोचर नही हुआ, जिसकी शरणमे वे जा सकें, "ब्रजनाथ से सुनाथविण, हाथो हाथ बिकायो। विचको कोउ जन कृपाल, सरन नजर न आयो ॥ ब्रज० ॥१॥" भक्त प्रेमिका बनकर भगवान्की शरणमे आया है। उसे इस प्रकार आनेमे किसीका कोई भय नही है । वह भगवान्से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! यह निश्चय जानो कि यद्यपि मैने करोड़ो अपराध किये है, किन्तु यह जन आपका ही है, अतः उसपर कृपा करो, "मैं आयी प्रभु सरन तुम्हारी, लागत नाहिं धको । भुजन उठाय कहुं औरन सूं, करहुंज कर ही सको ॥ अपराधि चित्त ठान जगत जन, कोरिक मांति चको । आनन्दघनप्रभु निहचै मानो, इह जन रावरौथ को ॥" ५८. जगजीवन (वि० सं० १००१) जगजीवनके पिताका नाम सन्घवी अभयराज था। वे आगरेके प्रसिद्ध धनी व्यक्ति थे। अहंकार नाम-मात्रको भो न था। दानादि होता ही रहता था। कोई भी साधु-संन्यासी, किसी भी सम्प्रदायका हो, उनके द्वारसे खाली हाथ नही लौटा। उनके पास वैभव था और उदारता भी। उनकी अनेक स्त्रियोंमे 'मोहन दे संघइन' अधिक प्रसिद्ध थी, उसको जैसा रूप मिला था वैसे ही गुण भी। भगवान् जिनेन्द्रके मार्गमे उसको श्रद्धा बहुत अधिक थी। उसीके गर्भसे जगजीवन १. नगर बागरे मे आरवाल आगरी, गरगगौत आगरे मे नागर नबलसा । संगही प्रसिद्ध अभैराज राजमान नीके, पंच बाला नलिनि मे भयो है कंवल सा ।।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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