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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
सुन्दर श्रृंगार
काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकामै 'सुन्दर श्रृंगार'की दो हस्तलिखित प्रतियोंका उल्लेख है । पहली जोधपुरके राजकीय पुस्तकालयमे मौजूद है। इसमें ९०० पद्य हैं। यह वि० सं० १७९१ में लिखी गयी थी। दूसरी श्री भाग्यसागर गणिके शिष्य पं० दौलतसागरने कानपुरमें वि० सं० १८३५ में लिखी थी। तीसरी हस्तलिखित प्रति मेवाड़के प्रसिद्ध राजकीय पुस्तकालय सज्जन वाणीविलासमे प्रस्तुत है । यह प्रति वि० सं० १८११ को लिखी हुई है। इसमे ४५९ पद्य हैं ।' इसके अनुसार यमुना तटपर बसे हुए आगरे नगरमें बैठा हुआ शाहजहाँ बादशाह राज्य करता था,
"नगर आगरी बसत है जमुना तट सुम थान ।
तहां पातसाही करें बैठो साहिजिहांन ॥२॥" जयपुरके पण्डित लूणकरजीके मन्दिरमै विराजमान गुटका नं० १२६मे भी श्रो सुन्दरदासजीका 'सुन्दर श्रृंगार' निबद्ध है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति अतिशय क्षेत्र महावीरजीके शास्त्रमण्डारमें मौजूद है। प्रति सुन्दर है। विषय श्रृंगार रससे सम्बन्धित है। पाखण्ड पंचासिका ___ यह रचना जयपुरके बड़े मन्दिरमें विराजमान गुटका नं० १२०में निबद्ध है । इसमें पाखण्डको बुरा कहा गया है। इस काव्यसे प्रमाणित है कि कविराय सुन्दरदास योगीन्दु, रामसिंह और देवसेनकी परम्परामें थे। उन्होंने बाह्य कर्मकलापोके परित्यागकी बात कही है। सुन्दर सतसई और सुन्दर विलास
दोनों कृतियां, जसवन्तनगरके दि. जैन मन्दिरके एक गुटकेमें संकलित हैं। यह गुटका स्वयं सुन्दरदासजीने मल्लपुरमें वि० सं० १६७८ में लिखा था।'
दोनों रचनाओंमें आध्यात्मिकतासे भरे पोंका समावेश हुआ है । कवि अपने 'जी'को सम्बोधन करते हुए कहता है, "ओरे जिया! तू विषयरसको छोड़ दे, विससे तुझे सुख प्राप्त होवे । तू सम्पूर्ण विकारोंको छोड़कर जिनेन्द्रके गुण गा।
१.का. ना प्र० पत्रिका, Annual Report Search for Hindi
Manuscripts-1901, No. 3. २. राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, भाग १, पृ० १५६ ॥ ३. कामताप्रसाद बैन, हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृष्ठ १२७-२८ ।