________________
१६३
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य तेरी महत्ता इसीमें है कि तुझे फिर इस चतुर्गतिमें न आना पड़े, और ऐसा तभी हो सकेगा जब तू क्षण-क्षणमे भगवान् जिनेन्द्रके गुण गायेगा। अपनी आत्मामें चित्त लगानेवाला पुरुष अचल पद प्राप्त करता है,
"जिया मेरे छांदि विषय रस ज्यौ सुख पावै । सब ही विकार तजि जिण गुण गावै। घरी-घरी पल-पल जिण गुण गावै । ताते चतुर गति बहुरि न था। जौ नर निज आतमु चित लावै । सुन्दर कहत अचल पद पावै ॥'
सुन्दरदासजीके लिखे हुए पद मन्दिर ठोलियान जयपुरके गुटका नं० ११० मे और दि. जैन मन्दिर बडौतके शास्त्रभण्डारके पदसंग्रहमें संकलित है। एक पदमें जीवको मूर्खता बताते हुए कविने लिखा है कि वह एक ओर तो संसारका आनन्द चाहता है और दूसरी ओर मोक्षसुख । किन्तु यह तो वैसे ही है जैसे कोई पत्थरकी नावपर चढ़कर समुद्रसे पार होना चाहे। शय्या बनाये कृपाणोकी और चाहे विश्राम, यह असम्भव है । वह पद्य इस प्रकार है,
"पाथर की करि नाव पार-दधि उतस्थौ चाहै, काग उड़ावनि काज मूढ़ चिन्तामणि बाहै। बसै छाँह बादल सणी रचै धूम के धाम,
करि कृपाण सेज्या रमै ते क्यों पा विसराम ॥" कवि सुन्दरदासको अपने आराध्यकी महिमामे अटूट विश्वास था। उनक आराध्यने चिपका ध्यान घरके संसारसे मुक्ति प्राप्त की थी। उसके समान विश्वमे और कोई नहीं है । उसकी भक्तिसे रोग-विरोग दूर हो जाते हैं,
"रहत भये संसार सौं जी हिरदै धरि करि ध्यान, ध्यान धरयौ चिद्रूप सौं जी उपज्यौ है केवल ज्ञान । रोग विरोग न संघरै हो मन वछित फळ होइ, कर जोडै सुन्दर मणे स्वामी तुम सम और न कोइ ॥"'
१. वही, पृष्ठ १२६ । २. मन्दिर ठोलियान, जयपुरका गुटका नं० ११०, पृष्ठ १२०, पद्य ५वाँ । ३. दि० जैन मन्दिर, बड़ौनके शाखभण्डारके पदमंग्ररकी हस्तलिखित प्रति, पृष्ठ ३३ ।