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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
पद ___इन्होंने कुछ पर्दोको भी रचना की थी। इनके कतिपय पद दि० जैन मन्दिर बड़ोतके पदसंग्रहकी हस्तलिखित प्रतिमे, कुछ पद अतिशय क्षेत्र, महावीरजीके एक प्राचीन गुटके में और कतिपय जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० १५८ में संकलित हैं।
उन्होंने एक पदमे मध्यकालीन जैन सन्तोंको भांति ही कहा कि हृदयको शुद्ध किये बिना भगवान्के नामोच्चारण और तीर्थयात्राओंसे भी कुछ नहीं होता,
"जिन आपकू जोया नहीं, तन मन कूषोज्या नहीं। मन मैल कुं धोया नहीं, अंगुल किया तो क्या हुआ टेका। लालच करै दिलदाम की, षासति करै बद काम की। हिरदै नहीं सुद्ध राम की, हरि हरि कहथा तो क्या हुमा । कुंता हुआ धन मालदा, धंधा करै जंजालदा। हिरदा हुआ च्यमालदा, कासी गया तो क्या हुआ ॥"
एक-दूसरे पदमें विशुद्ध भक्तकी भांति ही कविने कहा कि जिनकी आँखें भगवान् जिनेन्द्रसे लग गयी, वे उनके बिना रह नहीं सकते । जिनेन्द्रके देखनेपर ही उन्हे सुख मिलता है। बिना देखे बे ब्याकुल हो उठते है । एक भक्तमे भगवान्को निरन्तर देखते रहनेको ऐसी अदम्य प्यास होती है, जो कभी बुझती ही नहीं,
"लागि गई ये अँखियाँ जिन बिन रह्यो हुन जाय । जब देषे तब ही सुख उपजे विन देख्या उकलाय । मिटत हदे रो सूर्य उदय ते मिथ्या तिमिर मिटाय । इन्द्र सरीसा तृप्त न हूबा लोचन सहस बनाय । चिरम भारख अब है मेरै कर लूं कहूं बनाय ॥ अनुभव रस उपज्यौ अब मेरे भानंद उर न समाय ।
दास किसन ऐसे प्रभु पाये लखि लखि ध्यान लगाय ॥" पुण्याश्रवकथाकोश ____ यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसकी रचना वि० सं० १७७३ मे हुई थी। इसका संकलन जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० ३८ में किया गया है। यह गुटका सं० १८२३ में लिखा गया था। इसमे जैन-भक्तोकी पद्य-बद्ध कथाएँ हैं।
१. जयपुरके मन्दिर वर्धाचन्दका पदसंग्रह ४६२, पत्र १८५ ।