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________________ जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य ३३० चिंता को हरनहार चिता को करनहार, पोषन भरनहार किसन अनंत को। अंत कहै अंत दिन राखे को अनंत विन, ___ ताके तंत अंत को भरोसो भगवंत को ॥१॥" आदिनाथजीका पद इसकी रचना वि० सं० १७७१ मे हुई थी। यह प्रथम तीर्थकर भगवान् आदिनाथकी भक्तिमे निर्मित हुआ है। इसकी प्रति जयपुरके दि० जैन मन्दिर बधीचन्दजीके शास्त्रभण्डारमें गुटका नं० १६१ मे संकलित है। यह लिपि मयाचन्द गंगवालने रौझड़ोमे की थी। चेतन-गीत ___ यह गीत अपने चेतनको शिक्षा देनेसे सम्बन्धित है। चेतन भ्रममें फंसकर सचाईको भूल गया है । यह गीत उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका न० ५१ मे निबद्ध है । यह गुटका सं० १८२३ कार्तिक बदी ७ का लिखा हुआ है। कविका कथन है कि यह चेतन गुणवान् होते हुए भी अपनेको भूल गया है, जागृत नहीं होता । वह चतुर होते हुए भी इस संसारमें सुख मान रहा है। वह भव-भ्रमणको बात विस्मृत कर चुका है "तुम सूते काल अनादि के जागो जागो जी चेतन गुणवान । होजी सुष मानत संसार में इह ठाम्यौ जी तुम कौण सयाण । कहु भूलि गये मव भ्रमण को किन सोवो जी पुरबल बाता ॥" आत्मतत्त्वको न जाननेके कारण यह जीव चारों गतियोमें भ्रमण करता है। चह ठगिनो कुमतिके चक्करमे फंस जाता है और उसका अनादिकाल व्यर्थ ही बीत जाता है, "हो जी इह विधि चहुँ गति मैं भ्रम्यो बिन आतम तत्त्व तकी पहचानि । हो जी काल अनादि गुमाइयो इस कुमति उगौरी के बचमांनी ।।" विनती ___ इस विनतीका निर्माण तीर्थकरकी भक्तिमे किया गया है। इसकी प्रति उपर्युक्त मन्दिरके ही वेष्टन न० १०१५ मे मौजूद है । उसमे केवल एक पृष्ठ है। उसपर रचना और लेखनकाल कुछ नहीं दिया है ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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