________________
जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
३६३ यह जयपुरके ठोलियोके दि० जैन मन्दिरके गुटका नं० १०८मे निबद्ध है । चरित्रकी पद्य-संख्या २६४ है। इस काव्यके निर्माणको प्रेरणा अम्बावती नगरके जिनमन्दिरमे विराजमान भगवान् नेमिनाथको मनोज्ञ मूत्तिको देखकर मिली थी। कविने इस प्रतिमाको श्यामवर्णका कहा है। वह इसकी पूजा-अर्चा भी प्रति-दिन किया करते थे। प्रारम्भिक मंगलाचरण देखिए,
"श्री जिनवर बन्दौ सबै, आदि अन्त चउबीसै । ज्ञान पुंजि गुण सारिखा, नमो त्रिभुवन का ईस ॥ तामैं नेमि जिणन्द को बन्दौ बारम्बार ।
तास चरित बखाणिस्यो, तुछ बुद्धि अनुसार ॥" कटनेके लिए बंधे जीवोंपर करुणा करके ही नेमीश्वर विवाह-द्वारसे वापस लौट आये । वीतरागो दीक्षा ले, तप करने गिरनारपर चले गये। विलाप करती राजुल कहती है, “यदि तुम्हारा वियोग हुआ तो हमारा जन्म ही निष्फल हो जायेगा, इसलिए संयम छोड़कर सांसारिक सुखोंको भोगो। जब तुमने दया करके पशुओ तकको छुड़ा लिया, सब मीनकी भांति तड़पती हुई मुझपर दया क्यो न करोगे?"
"जो होइ वियोग तिहारो, निरफल कै जनम हमारो । तातें संजम अब तजिए, संसार तणां सुख मजिए ॥ जल बिन मीन जिव किम, मीन तैसे हूं तुम आधीन ।
तुम भाव दया की कीन्हा, सब जीव छुड़ाई जी ॥" राजा सवाई जयसिंहका राज्य था। अम्बावती नगरके मध्यमे एक जिनमन्दिर था। उसमे नेमिकुमारको अनुपम मूत्ति थी। मन्दिरके चारों ओरके प्राकृ. तिक वातावरणका दृश्य देखिए,
"अजयराज यह कीयो बखाण, राज सवाई जयसिंह जाण । अंबावती सहरै सुम थान, जिन मन्दिर जिम देव विमाण ॥ वीर निवाण सोहै बनराई, बेलि गुलाब चमेली जाई। चम्पो मरबो अरै सेवति, यो हौ जाति नाना विधि कीती ॥ बहु मेवा विधि सार, वरणत मोहि लागै बार। गढ मन्दिर कछु कहयौ न जाइ, सुखिया लोग बसे अधिकाइ ॥ तामै जिन मन्दिर इक सार, तहां विराजै श्री नेमिकुमार । स्याम मूर्ति सोमा अति घणी, ताकी उपमा जाइन गणी ॥"