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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि लिखित रूपमे दोहाका सर्वाधिक प्राचीन रूप 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंकमे देखा जा सकता है। योगीन्दु ( सातवीं शताब्दी विक्रम ) के 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार'मे भी अपभ्रंशके दोहोंका ही प्रयोग हुआ है।
जैन कवियोंने दोहेका प्रयोग अध्यात्म, उपदेश और भक्तिके अर्थमें ही अधिक किया। उसीकी परम्परा हिन्दीके भक्ति-काव्यको मिली। भट्टारक शुभचन्द्र ( १६वी शताब्दी ) ने 'तत्त्वसार दूहा' में, पाण्डे रूपचन्द (१७वी शताब्दी ) ने ‘परमार्थी दोहाशतक' मे, मनराम ( १७वीं शताब्दी ) ने 'मनराम विलास' में और पाण्डे हेमराज ( १८वीं शताब्दी) ने 'उपदेश दोहाशतक' मे दोहोंका ही एक मात्र प्रयोग किया है । अनेक कृतियां ऐसी है, जिनके बीच-बीचमे दोहे बिखरे हुए है । 'बनारसी विलास'का एक दोहा देखिए,
"समुझ सकै तौ समुझ भब, है दुर्लभ नर देह ।
फिर यह संगति कब मिले, त् चातक हौं मेह ।।" चौपाई ___चौपाईका आदि रूप है अपभ्रंशका पद्धड़िया छन्द । उस समय दुवई और ध्रुवकके साथ पद्धडियाका कड़वकके रूपमे प्रयोग किया जाता था । कवि पुष्पदन्तके 'हरिवंसु पुराणु'मे लिखा है कि इसके आदि आविष्कर्ता चतुर्मुख थे । हिन्दीमे आकर 'दुवई' का प्रयोग तो समाप्त ही हो गया, और पत्तेका स्थान 'दोहे'ने ले लिया। पद्धड़िया चौपाई हो गया। अपभ्रंशकी कडवकवाली शैली हो हिन्दीको 'चौपाई-दोहा' शैलीकी उत्पादिका है। ___ डॉ० हीरालाल जैनका कथन है कि कडवकवाली शैली महाकाव्योमे ही प्रयुक्त होती थी। हिन्दीके कवियोंने भी इसी परम्पराको अपनाया । 'पद्मावत' और 'रामचरित मानस', चौपाई-दोहोंमें ही लिखे गये है। जैन हिन्दीमे भी साधारुका 'प्रद्युम्न चरित्र',लालचन्द लब्धोदयका 'पद्मिनीचरित्र', रायचन्दका 'सीताचरित्र' और भूधरदासका 'पार्श्वपुराण' चौपाई-दोहोंका ही निदर्शन है।
१. बनारसीदास, अध्यात्मपद पंक्ति, आलाप दोहा, छठा, बनारसीविलास, जयपुर, २. डॉ० हीरालाल जैन, अपभ्रंशके महाकाव्य, अपभ्रंश भाषा और साहित्य, नागरी
प्रचारिणी पत्रिका, अंक ३-४, पृ० ११२ । ३.डॉ० रामसिंह तोमर, जैन साहित्यकी हिन्दी साहित्यको देन, प्रेमी अभिनन्दन
ग्रन्थ, पृ० ४६८। ४. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, अंक ३-४, पृ० ११२ ।
पृ०२३४ ।