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जैन मक्ति-कान्यका कला-पक्ष
पंज से गनीम तेरी उमर साथ लगे हैं,
खिलाफ तिसें जानि तुं आप सच्चा आनिये।" 'भैया' की भाषा नाटकीय रसके अनुरूप है। यह रस उनके द्वारा रचित संवादोंके मध्य विकसित हुआ है। 'पंचेन्द्रिय संवाद' मे लालित्य है। सरल, छोटे-छोटे वाक्य है। उनमे स्वाभाविकता है, रसकी पिचकारियों से मालूम होते है। केशवदासके संवाद प्रसिद्ध है, किन्तु उनका प्रयोग केवल 'रामचन्द्रिका में हुआ है, 'रसिकप्रिया' या 'कविप्रिया' में नहीं। 'रामचन्द्रिका प्रबन्ध काव्य है। मुक्तक काव्यमे संवादोंका प्रयोग 'भैया' की देन है। जीभ आँखसे कहती है।
“जीभ कहै रे आँखि तुम, काहे गर्व कराहिं । काजल करि जो रंगिये, तोहू नाहिं लजाहि ॥ कायर क्यों डरती रहै, धीरज नहीं लगार । बात बात में रोय दे, बोले गर्व अपार ॥ जहाँ तहाँ लागत फिर, देख सलौनो रूप । तेरे ही परसाद से, दुःख पावै चिद्रूप ।"
छन्द-विधान
वि० सं० १४००-१८०० के जैन कवियोंने वणिक और मात्रिक दोनों ही प्रकारके छन्दोंका प्रयोग किया है। वणिक छन्दोंका प्रयोग अधिकांशतया संस्कृतकी अनूदित कृतियोंमें किया गया है और मात्रिकका मौलिकमे । मात्रिक छन्दोंकी प्रधानता है। उनमें भी दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, और विविध पद्य मुख्य है। दोहा
जैसे संस्कृतका 'श्लोक' और प्राकृतका 'गाथा' मुख्य छन्द माना जाता है, वैसे ही अपभ्रंशका दोहा । अपभ्रंशको दूहा-विद्या कहते है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने दोहाका उत्पत्ति-स्थल आभोर जातिके 'विरहागानों में खोजा है। किन्तु
१. भैया भगवतीदास, शतअष्टोत्तरी, ५हवा कवित्त, ब्रह्मविलास, द्वितीयावृत्ति, सन्
१९२६ ई०, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृ० २१ । २. भैया भगवतीदास, पंचेन्द्रिय संवाद, ब्रह्मविलास, दोहा ६६-६८, पृ० २४४। ३. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पंचम व्याख्यान,
पृ० १२ ।