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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
नेमिनाथ फागु
श्री मोहनलाल दुलीचन्द देशाईने 'नेमिनाथ फागु'का रचनाकाल वि० सं० १४०५ के लगभग स्वीकार किया है।
'नेमिनाथ फागु' मे २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ और राजुलकी कथाका काव्यमय निरूपण हुआ है । नेमिनाथ कृष्णके छोटे भाई थे । जूनागढके राजा उग्रसेनकी कन्या राजमती ( राजुल ) के साथ उनका विवाह निश्चित हुआ । बारात गयी, किन्तु भोज्य पदार्थ बननेके लिए एकत्रित किये गये पशुओंके करुण क्रन्दन से दयार्द्र होकर उन्होने वैराग्य ले लिया । वे गिरिनारपर तप करने चले गये । राजुलने दूसरा विवाह नही किया और नेमिनाथके भक्तिपूर्ण विरह में समूचा जीवन व्यतीत कर दिया ।
'नेमिनाथ फागु' २७ पद्योंका छोटा-सा खण्ड-काव्य है । इसमें नेमिनाथकी भक्तिकी ही प्रधानता है ।" दृश्योंको चित्रित करनेमे कवि निपुण प्रतीत होता है । विवाह के लिए सजी राजुलके चित्रमे सजीवता है । राजुल चम्पककलीकी भाँति गोरी है, उसके शरीरपर चन्दनका लेप है । सीमन्तमे सिन्दूरकी रेखा खिची है। नवरंगी कुंकुमका तिलक भालपर विराजमान है । मोतियोके कुण्डल कानों में सुशोभित हैं । मुख कमल पानकी लालिमासे रचा है। कण्ठमे हार पड़ा है । कंचुकीने कसा यौवन और उसपर पड़ी विकसित माला, हाथमे कंकण और खनकती मणिकी चूड़ियोंमें, जैसे आज भी राजुलका विवाहोत्साह फूटा पड़ता है । उसकी घाघरीका 'रुणुझुणु' और पायजेबकी 'रिमझिम' तो आज भी कानोंमें पड़ रही है । रागसे लाल हुई उसकी आँखें, मनमे विराजित पतिको देख रही हैं।
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वहीं, पृ० १३ |
सिद्धि जेहि सइ वर चरिअ ते तित्थयर नमेवी । फागुबंधि पहु नेमि जिणु गुण गाएसउ केवी ॥१॥ राजल देविसउं सिद्धि गयउ सो देउ थुणीजई । मलहारिहि रायसिहर सूरि किउ फागु रमी जई ||२७|| किम किम राजलदेवि तणउ सिणगारु भणेवउ | चंपइगोरी अइधोई अंगि चंदनु लेवउ ॥ खुपु भराविउ जाइ कुसुम कस्तूरी सारी । सीमंत सिंदूररेह मोतीसरि सारी ॥
नवरंग कुंकुमि तिलय किय रयण तिलउ तसु भाले । मोती कुंडल कनि थिय विवालिय कर जाले ॥