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________________ जैन मा कवि : जीवन और साहित्य २९५ स्वभावको आच्छादित कर रखा है। वह अतृप्तिके कांटोंपर लेटकर दुःख पा रहा है, ज्ञान-कुमुमोंकी गय्यापर लेटनेका उसे कभी सौभाग्य ही प्राप्त नहीं हुआ। देखिए, "मेरी मेरी करत बाउर, फिर जीउ अकुलाय । पलक एक में बहुरि न देम्बे, जल-बुंद की न्याय ॥ प्यारे काहे 5 ललचाय ॥ कोटि विकल्प व्याधि की वेदन, लही शुद्ध लपटाय । ज्ञान-कुसुम की मेज न पाई, रहं अघाय अघाय । प्यारे काहे कू ललचाय ॥" ___ यहाँ 'बाउरे' शब्द ऐसे उपयुक्त स्थानपर बैठा है, जिसमे ममचे पद्यमे जीवन आ गया है। उपयुक्त स्थानपर शब्दोंको बिठाना मच्चे कलाकारका ही काम है । विनयविजयको भाषा, शैली और भाव मभी कुछ मनोहारी है । ७७. देवाब्रह्म ( १८वीं शताब्दीका पूर्वार्ध) अभीको खोजोंमे देवाब्रह्मकी कुछ रचनाओका पता चला है, जिनके आधारपर यह निश्चिन्त होकर कहा जा सकता है कि वे हिन्दीके उत्कृष्ट कवि थे। सैकड़ों बिखरे पदों और विनतियोंमे जैसे उनका हृदय ही फूट पड़ा है। भाषा भी परिमाजित है। उसपर कुछ राजस्थानीका प्रभाव है। देवाब्रह्मके अधिकांश पद्य भगवान् जिनेन्द्रके चरणोमे समर्पित हुए है। ___ 'देवाब्रह्म'मे ब्रह्म शब्द उपाधिसूचक है जो उनके ब्रह्मचारी होनेकी बात घोषित करता है। उनका नाम 'देवजी' था। यह स्वीकार करते हुए भी कि 'देव' का प्रयोग प्रायः नामके अन्तमें ही होता है, निश्चय रूपसे यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि 'देवजी' नाम नहीं हो सकना । नामोंकी विचित्रता सभीको विदित है। बाबू कामताप्रसादजीने अपने इतिहासमे देव ब्रह्मचारी और केशरीसिंहको लेकर एक शंका उपस्थित की है। उनका कथन है कि "देव ब्रह्मचारी ( केशरी सिंह ) कृत 'सम्मेदशिखर विलास' नामक रचना हमारे संग्रहमे है। अर्थात् क्या १.भाराधना कथाकोशके कर्ना नेमिदत्तने और प्राकृत श्रत स्कन्धके रचयिता हेमचन्द्रने __उपाधिके रूपमें ब्रह्म शब्दका प्रयोग किया है। २.हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास, पृ० १६५ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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