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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
कितना ही रुपया व्यय करो, कितना ही अच्छा चारा दो, सवारीके समय यह अवश्य ही इधर-उधर बहकेगा। यह सेवाएं तो बहुत प्रकारकी करवाता है, किन्तु सवारको कही दूर जंगलमें जा पटकना है। अतः इस विगडैल घोडेको ठीक रास्तेपर लानेके लिए, चावुकसे काम लेना होगा। बिना ऐसा किये यह संसाररूपी मार्ग कैसे पार कर सकेगा? वह रूपक देखिए,
"धारा झूठा है रे तू मत भूले असवारा । तोहि मुधा ये लागत प्यारा, अंत होयगा न्यारा ॥ चरै चीज और डरै कैद सौं, ऊबट चलै अटारा । जीन कसै तब सोया चाहै, खाने कौं होशियारा ॥ खूब खजाना खरच खिलाओ, यो सब न्यामत चारा । असवारी का अवसर आवै, गलिया होय गंवारा ॥ छिनु ताता छिनु प्यासा होचे, खिजमत बहुत करावन हारा। दौर दूर जंगल में डारे, झरै धनी विचारा ।। करहु चोकड़ा चातुर चौकस, द्यौ चाबुक दो चारा।
इस घोरे को 'विनय' सिखावो, ज्यों पावो भवपारा ॥" यह मनुष्य सांसारिक सुखोको प्राप्त करनेके लिए बहुत ललचाता है। एकके बाद दूसरेको प्राप्त करनेकी उसकी तष्णा कभी बुझती नहीं। वह मृगतृष्णाकी भाँति उनके पीछे अविराम गतिसे दौड़ता है किन्तु कुछ मिलता नहीं। जीवन व्यर्थ चला जाता है। उसे यह पता नही कि उसके भीतर ही सुधाका सरोवर लहरा रहा है। उसमें स्नान करनेसे सब दुःख दूर हो जाते है, और परमानन्दकी प्राप्ति होती है। शाश्वत सुख उसके पास ही है। वह व्यर्थमे ही इधर-उधर भटकता फिरता है,
"किया दौर चहुं ओर जोर से, मृगतृष्णा चित लाय । प्यास बुझावन बूंद न पाई, यों ही जनम गमाय ॥
__ प्यार काहे कुंतू ललचाय ।। सुधा सरोवर है या घट में, जिसने सब दुख जाय । 'विनय' कहे गुरुदेव सिखावे, जो लाऊं दिल आय ॥
प्यारे काहे कू तू ललचाय ।।" सांसारिक पदार्थोंके लिए ललचाना मूर्खता है । जिनके लिए यह जीव व्याकुल होकर 'मेरी मेरी' करता है, वे जलके बुलबुलेके समान क्षणिक हैं। क्षणिक पदार्थो में चिरन्तन सुख ढूंढ़ना मूर्खता ही है। माया-जन्य विकल्पोंने जीवके शुद्ध