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जैन मक्क कवि : जीवन और साहित्य
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नमो करि फेरि सिद्धि को भष्ट करम कीए छार, सहत आठ गुन सो मई, करै भगत उधार । आचारज के पद फेरि णमो, दूरी अन्तर गति माउ, पंच अचरजा सिद्धि ते, मार जगत के राउ ॥"
७६. विनयविजय ( वि० सं० १७३९ तक थे ) ___ ये एक श्वेताम्बर साधु थे। इनके गुरुका नाम कीनिविजय उपाध्याय था। कातिविजयजी वीरमगामके रहनेवाले थे। कीर्तिविजयको गणना अच्छे विद्वानोम थो । विनयविजय इन्हीके शिष्य थे। उन्होंने अपनी गुरु-परम्पराका उल्लेख इम प्रकार किया है : हीरविजय, विजयदेव, विजयसिंह, कीतिविजय, विनयविजय ।'
विनयविजयजी यशोविजयके समकालीन थे। दोनोने साथ रहकर ही काशीमें विद्याध्ययन किया था। विनयविजयकी न्याय और साहित्यमे समान गति थी। इनका 'नयकणिका' नामका ग्रन्थ अंगरेजी टोकासहित छप चुका है। 'पुण्यप्रकाशस्तवनम्' और 'पंचममवायस्तवनम्' भक्तिसे सम्बन्धित है। गुजराती साहित्यको उनकी विशाल देन है। उसमें 'नेमिनाथ भ्रमर गीतास्तवन', 'नेमिनाथ बारमास स्तवन', 'आदिनाथ विनती', 'चौबीसी', 'वीशी' और 'शाश्वत जिनभाष' अत्यधिक प्रसिद्ध है। काशी में रहनेके कारण उन्होने हिन्दीमे भी समुचित योग्यता प्राप्त कर ली थी। उनका हिन्दीका एक ग्रन्थ 'विनय-विलास'के नामसे छा चुका है। इसमे कुल ३७ पद है । विनय-विलास
यह शरीर झूठा है, किसीके साथ नहीं जाता, यहां ही पड़ा रह जाता है। जीव उसको प्रेम करता है, करना नहीं चाहिए । आत्मा हो जीव है, जो कभी व्यय नहीं होता, जो कभी मरता नहीं। इसीको कविने एक सुन्दर रूपकके द्वारा उपस्थित किया है। आत्मा या जीव सवार है और शरीर घोड़ा। यह खानेमे तो होशियार है, किन्तु जब इसपर जीन कसो, तब यह सोना चाहता है। इसपर
१. नेमिनाथ भ्रमर गीता स्तवन, गुजराती, २६वाँ पद्य ।
जैन गुर्जर कविप्रो, भाग २, बम्बई, १६३१ ई०, पृ० ७ । २. जैन स्तोत्र सन्दोह, प्रथम भाग, मुनि चतुरविजय-द्वारा सम्पादित प्रस्तावना, पाद ___ टिप्पणी, पृ० ६३। ३. सभीका संक्षिप्त विवरण 'जैन गुर्जरकविप्रो', भाग २, पृ०६-१७ में अंकित है।