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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
की कैदके कारण विकसित नही हो पायी। मूल ग्रन्थकी ही रचना बढ़िया नही है।" काव्य-शक्ति मॅजी हुई और पुष्ट है, किन्तु कथानकसम्बन्धी घटनाओंके घुमाव-फिरावमे कुछ दोष है, जो मूल ग्रन्थसे सम्बन्धित है। सम्बन्ध-निर्वाह भी विशृंखल है। का० ना० प्र० के सम्पादकोका विचार है, "प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त रोचक है । कविता अच्छी है।" पत्रिकाके सम्पादकोंने बछनेरा (आगरा)के जैन मन्दिरके शास्त्रभण्डारसे एक प्रति प्राप्त की थी। उसपर रचना-संवत् १८२३ पड़ा हुआ है, जिसका खण्डन स्वयं सम्पादकोंने ही किया है।
इसकी एक प्रति नया मन्दिर दिल्लीके हस्तलिखित ग्रन्योमे मौजूद है। लिपि सं०१८९२ की हुई है। इसमे २०१ पृष्ठ हैं। दूसरी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके जैन-मन्दिरमे वेष्टन नं० ६४४मे निबद्ध है। इसमे पत्रसंख्या २०२ है और रचनाकाल सं० १७५४ दिया हुआ है। अछनेरावाली प्रतिके आधारपर प्रारम्भका एक छप्पय छन्द देखिए,
"सेवत सत सुरराय स्वयं सिद्धिशिव सिद्ध मय । सिद्धारथ सरवस नय प्रमाण सो सिद्धि जय ॥ करम कदन करतार करन हरन कारन चरन । असरन सरन अम्बार मदन दहन साधन सदन ॥ इहविधि अनेक गुणगण सहित, जग भूषण दूषण रहित ।
तिहि नन्दलाल नन्दन नमत, सिद्धि हेत सरवज्ञ नित ॥" जैन-चौबीसी
इसका उल्लेख काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोके पन्द्रहवें त्रैवार्षिक विवरणमे हुआ है। पत्रिकाके सम्पादकोंको इसकी प्रति 'मांगरौल गुजर'के रहनेवाले श्री दुर्गासिंह राजपूतके पास प्राप्त हुई थी। मांगरोलका डाकखाना रुनकता, तहसील किरावली और जिला आगरा है। इसमे १९६ अनुष्टुप् छन्द है। सभी २४ तीर्थकरोंकी भक्तिसे सम्बन्धित है। भगवान् आदिनाथकी वन्दनामें एक छन्द इस प्रकार है,
"बन्दौ प्रथम जिनेस को, दोष अठारह चुरी, वेद नक्षत्र ग्रह औरष, गुन अनन्त मरी पुरी।
१. हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, बम्बई, १६१७ ई०, पृ० ६६ । २. काना०प्र० पत्रिकाके हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थोंकी खोजके त्रैवार्षिक पन्द्रहवें
विवरणमें देखिए।