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. हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि १९२६ की लिखी हुई है। एक प्रति आमेरशास्त्रभण्डार जयपुरमे, दूसरी जयपुरके ठोलियोके दि० जैन मन्दिरमे और तीसरी जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे मौजूद है। दिल्लीके पंचायती मन्दिरमे भी एक प्रति है। इन सबमे प्राचीन प्रति आमेरशास्त्रभण्डारकी है। यद्यपि काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी १९वी विवरणिकाके सम्पादकोने, इसका रचनाकाल वि० स० १६४९ निर्धारित किया है, किन्तु सभी प्राचीन प्रतियोमे वि० सं० १६५१ दिया हुआ है।
यह एक उत्तम कोटिका प्रबन्ध-काव्य है। इसमें महाराजा श्रीपालका चरित्र वर्णित है। उनकी पत्नी मैनासुन्दरीने, जिनेन्द्र-भक्तिसे ही अपने पति श्रीपालका कोढ़ ठीक किया था। श्रीपाल भी भगवान् जिनेन्द्रका भक्त हो गया था। इस काव्यमे वीर और भक्ति रसका समन्वय हुमा है।
इसको पढ़नेसे स्पष्ट हो जाता है कि रचयिता एक प्रौढ कवि थे। उन्होने आगरे और ग्वालियरका सजीव चित्र उपस्थित किया है। श्रीपाल और मैनासुन्दरीके जीवनको अनेक घटनाओको सुन्दरताके साथ चित्रित किया गया है । धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य, हिसा और अहिंसाके घात-प्रतिघातोको भी सुष्ठु ढंगसे दिखलाया है। अन्तमे जैनधर्म और उसके 'भक्तिपरक गीतो' मे ही महाकाव्य पूर्ण हुआ है। ___ कविने जिन-शासन, जिन-माता और जिन-मुनियोके चरणोमे अपनी श्रद्धा समर्पित की है, "वंदौं जिन शासन को धम्म, भाप साय नासै अधकर्म । वंदौं गुरु जे गुण के मूर, जिनके होय ग्यान को पूर। वंदौं माता सींह वाहिनी, जातें सुमति होय अति धनी। वंदौं मुनियन जे गुन धम्म, नवरस महिमा उदतिन कर्म ॥
प्रशस्ति अन्तिम ॥" 'श्रीपाल चरित्र' दोहे-चौपाइयोंमे लिखा गया है। कहीपर भी यति-भंग और छन्द-भंग नही हुआ है। अनुप्रासोका चयन भी सुन्दर है । यद्यपि उसकी भाषामें तद्भव शब्दोंका प्रयोग अधिक हुआ है, किन्तु उसकी गति-शीलता कही भी विशृंखल नही होने पायी है । भाषामे व्रज, अवधी, बुन्देलखण्डी और मारवाड़ीका
१. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, पृष्ठ २७१ । इस प्रतिका लिपिकाल वि० सं० १७६४ दिया
हुआ है। २. राजस्थानके जैन शास्नभण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग ३, पृष्ठ २१६ । ३. वही, पृष्ठ ७६1