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________________ प्राकथन लीला चलती है । और किसी भी नदीके प्रवाहकी अपेक्षा स्वयं समुद्रके अन्त:प्रवाह अधिक वेगवान् और समर्थ होते हैं । साहित्यकी ओर देखते कहना पड़ता है कि जीवनका चैनन्य साहित्य में भी सबसे अधिक सामर्थ्य से व्यक्त होता है उसकी कवितामें । क्योंकि सच देखा जाये तो 'हृदयकी सिद्धि' ही काव्य है । इतना स्पष्ट होनेके बाद अलग कहनेकी जरूरत ही नहीं है कि भक्ति-काव्यमें ही उस उस पत्थकी जीवनसिद्धिका उत्तम परिचय पाया जाता है। उसमे भी हृदयधर्मकी निष्ठा जिसे पूर्णरूपसे मिली है, उस नारी जातिके भक्ति काव्यका तो पूछना ही क्या । जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाली अन्य बातोंसे स्त्रियोंका परिचय भले ही कम हो, साहित्यको चातुरी भी भले उनमें कम हो, ज्ञानचचमें उनकी तनिक भी दिलचस्पी न हो, किन्तु हृदयोके भावोंके साथ एकनिष्ठ रहना, उन भावोंके चरणोंमे अपने जीवनका पूर्णतया अर्पण करना उनके लिए स्वाभाविक है । आराध्य देवकी उपासना करते अपनेको भूल जाना और सर्वार्पणमें ही सन्तोष मानना, यह है स्त्रीप्रकृति । जैन जीवनदृष्टिने जिनेन्द्र आदि चाहे सो नाम पसन्द किया हो, अपनी जीवननिष्ठा आत्मतत्त्वको ही अर्पण को है । और सब साधक जानते है कि उपासनाका रूप कुछ भी हो, आत्मार्पण तो आत्मदेवको ही हो सकता है । भगवान्‌के नाम अनन्त हैं लेकिन सच्चा नाम तो अन्तरतम यानी आत्माराम ही है। इस आत्मदेवकी भक्ति सर्वभावेन करते जिसको जो रास्ता मिला, उसने अपनाया है । 1 श्री प्रेमसागरजीने जैन भक्ति काव्यके सागरमे अनेक बाजूसे डुबकियाँ लगायी हैं और जो मोतो उन्हे मिले, हमारे सामने रखे है । अपनी पहली किताब जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमिमे पाठकके लिए और रसिकोके लिए उन्होंने पूर्व तैयारी की है । अब इस ग्रन्थमे उन्होंने भावकी दृष्टिसे और कलाको दृष्टिसे अनेकानेक जैन कवियोंका और कवयित्रियोंका परिचय करवाया है। मैं तो मानता हूँ कि काव्य और भक्ति, ये दोनों क्षेत्र ही ऐसे सार्वभौम हैं अथवा सागरोपम है कि इनमे पन्थभेदोंका लोप ही हो जाता है । गोपियोंकी मधुरा भक्ति राम उपासना भी पहुँच गयी और वीतरागीकी भक्ति में भी उसने अपनी प्रधानता साबित की है । धर्मके पन्थोंमें और जीवनकी संस्कृतियोंमें चाहे जितने भेद हों, जीवन तो एक अखण्ड, सम्पूर्ण और भूमा होता है । सब दर्शनोंको नम्र होकर जीवनसे ही दीक्षा लेनी पड़ती है और जीवनकी उपासना करनी पड़ती है। जिस तरह सागरमें सब तीर्थ समाये जाते हैं, उसी तरह सब देवता जीवन देवताकी
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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