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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
कर बकरा तो हो सकता है, योगी नहीं । जंगलमे जाकर धूनी रमानेसे उसका कामदेव भले ही जल जाये, किन्तु वह योगी न कहलाकर हिजड़ा ही कहा जायेगा । मनकी शुद्धिके बिना यदि कोई सिर मुँड़ाकर और रंगे हुए कपड़े पहनकर गोता बाँचता है, तो वह लबार ही कहलायेगा,
" मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा । कनवा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले । दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गइले बकरा ॥ जंगल में जाय जोगी धुनिया रमौले । काम जराय जोगी बनि गइले हिजरा ॥ मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले । गीता बांचि के होइ गइले लबरा ||
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शुद्ध मनकी भूमिका के बिना माला फिरानेको व्यर्थता जैन और अजैन दोनों ही सन्तोने समझी थी । कवि द्यानतरायका कथन है कि आसन मारकर मनका ले बैठ जानेसे बाहरी दुनियावाले रीझ सकते है, किन्तु इस बक- ध्यानसे आत्माका भला नहीं होगा ।
"कर मनका लै आसन भारचो बाहिज लोक रिझाई । कहा भयो बक ध्यान धरे तैं, जो मन थिर न रहाई ॥ तू तो समझ समझ रे भाई ॥
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कबीरदासने कोरी माला फिरानेको निष्प्राणतापर बहुत कुछ लिखा है । 'भेष कौ अंग' का आधेसे अधिक भाग मालाकी निःसारतासे ही युक्त है । काठ
की माला फिरानेसे कुछ नहीं होता, मनकी माला फेरनी चाहिए,
"माला पहिरे मनमुषी, ताथै कछू न होइ ।
उजियारा सोइ ॥
मन माला कौं फेरवा, जुग कबीर माला काठ को, कहि समझाचै तोहि । मन फिरा आपणां, का फिराने मोहि ॥
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मध्ययुगके साधुको पहचान मे दो बातें मुख्य है : जटा बढ़ाना अथवा सिर मुँड़ाना । मोक्ष तक पहुँचने के सोपानमे यह भी एक सीढ़ी मानी जाती थी । जैन सन्त उदयराज जतो ( १७वीं शती वि० सं० ) ने उसका खण्डन करते हुए
१. कबीर, सबद, ६५वॉ पद, सन्तसुधासार, पृ० ६८ ।
२. द्यान पदसंग्रह, कलकत्ता, ३२वॉ पद, पृ० १४ ।
३. कबीरग्रन्थावली, चतुर्थं संस्करण, काशी, 'मेष कौ अंग', साखी ३, ५, १०४५