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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
७९ एक स्थानपर कविने लिखा है कि शुद्ध चिदानन्दरूप अपना भाव ही ज्ञान है । उसका चिन्तवन करनेसे मोह-माया दूर हो जाते हैं, और सिद्धि प्राप्त होती है । आत्माको सिद्धिमे ही सुख मिलता है, अन्यथा नही,
"ज्ञान निज भाव शुद्ध चिदानन्द,
चीततो मूको माया मोह गेह देहए । सिद्धतणां सुखजि मल हरहि,
मात्मा भाव शुभ एहए ।।९१॥" गुरुको महिमाका उल्लेख करते हुए कविने स्वीकार किया है कि गुरुकी कृपाके बिना, शुद्ध चिद्रूपके ध्यान करनेसे कुछ नही होगा। गुरुकी कृपासे ही शुद्ध स्वरूप प्राप्त हो सकेगा,
"श्री विजयकीर्त्ति गुरु मनि धरी, ध्याऊं शुद्ध चिद्रप ।
भट्टारक श्री शुभचंद्र मणि था तु शुद्ध सरूपे ॥९॥" ऐसा प्रतीत होता है कि इस काव्यको रचना, किन्हीं 'दुलहा' नामके धर्मप्राण व्यक्तिको प्रेरणासे की गयी थी । स्थान-स्थानपर उसका नाम आया है,
"रोग रहित संगीत सुखी रे, संपदा पूरण ठाण ।
धर्मबुद्धि मन शुद्धि डी, 'दुलहा' अनुक्रमि जाण ॥९॥" चतुर्विशति-स्तुति __ भट्टारक शुभचन्द्रकी यह कृति, श्री दिगम्बर जैन मन्दिर बधीचन्दजी, जयपुरमे मौजूद है । इसकी भाषापर भी गुजरातीका प्रभाव है। क्षेत्रपाल गीत ____पाटौदी दि० जैन मन्दिर, जयपुर गुटका नं० ५३ में ६९वीं संख्यापर निबद्ध है । इस गुटकेका लेखन-काल वि० सं० १७७५ है। अष्टाह्निका गीत ____ यह गीत भी उपर्युक्त मन्दिरके ही गुटका नं० २१६ मे पृ० २१ पर संकलित है।